सरम खंड की बाणी रूपु ॥ तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुतु अनूपु ॥
सरम = श्रम, उद्यम, मेहनत। सरम खण्ड की = उद्यम अवस्था में। बाणी = बनावट। रूप = सुंदरता। तिथै = इस मेहनत वाली अवस्था में। बहुत अनूप = (मन) बहुत सुंदर।
श्रम अवस्था की बनावट सुंदरता है (भाव, इस अवस्था में आ के मन दिनों दिन खूबसूरत बनना शुरू हो जाता है)। इस अवस्था में (नई) घाढ़त के कारण मन बहुत सुंदर घढ़ा जाता है।
ता कीआ गला कथीआ ना जाहि ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥
ता कीआ = उस अवस्था की। कथीआ न जाहि = कही नहीं जा सकतीं। को = कोई मनुष्य। कहै = कहे, ब्यान करे। पिछै = बताने के बाद। पछुताइ = पछताए, पछताता है (क्योंकि वह ब्यान करने से अस्मर्थ रहता है)।
उस अवस्था की बातें ब्यान नहीं की जा सकतीं। यदि कोई मनुष्य बयान करता है, तो बाद में पछताता है (क्योंकि वह बयान करने से अस्मर्थ रहता है)।
तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥ तिथै घड़ीऐ सुरा सिधा की सुधि ॥३६॥
तिथै = उस श्रम खण्ड में। घड़ीऐ = घड़ी जाती है। मनि बुधि = मन में जागृति। सुरा की सुधि = देवताओं जैसी सूझ। सिधा की सुधि = सिद्धों वाली समझ।
उस मेहनत वाली अवस्था में मनुष्य की तवज्जो और मति घढ़ी जाती है, (भाव, श्रुति और मति ऊँची हो जाती है) और मन में जागृति पैदा हो जाती है। श्रम खण्ड में देवताओं और सिद्धों वाली बुद्धि (मनुष्य के भीतर) बन जाती है।36।
करम खंड की बाणी जोरु ॥ तिथै होरु न कोई होरु ॥
तिथै जोध महाबल सूर ॥ तिन महि रामु रहिआ भरपूर ॥
करम = बख्शिश। बाणी = बनावट। जोरु = बल, ताकत। होरु = अकाल-पुरख के बिना कोई दूसरा। होरु न कोई होरु = अकाल-पुरख के बिना दूसरा बिल्कुल ही कोई नहीं है। जोध = योद्धे। महाबल = बड़े बल वाले। सूर = सूरमे। तिन महि = उन में। रामु = अकाल-पुरख। रहिआ भरपूर = नाको नाक भरा हुआ है, रोम रोम में बस रहा है।
बख्शिश, रहिमत वाली अवस्था की बनावट बल है, (भाव, जब मनुष्य पर अकाल-पुरख की मेहर की नज़र होती है, तो उसके अंदर ऐसा बल पैदा होता है कि विषय-विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते), क्योंकि उस अवस्था में (मनुष्य के अंदर) अकाल-पुरख के बिना और कोई दूसरा बिल्कुल नहीं रहता। उस अवस्था में (जो मनुष्य हैं वह) योद्धे, महांबली व सूरमें हैं, उन के रोम रोम में अकाल-पुरख बस रहा है।
तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥ ता के रूप न कथने जाहि ॥
ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥ जिन कै रामु वसै मन माहि ॥
सीतो सीता = पूर्ण तौर पर सिला हुआ।
महिमा = (अकाल-पुरख की) महिमा, वडियाई। माहि = बीच में। ता के = उन मनुष्यों के। रूप = सुंदर रूप। न कथने जाहि = कथन नहीं किए जा सकते। ओहि = वे लोग। ना मरहि = आत्मिक मौत नहीं मरते। ना ठागै जाहि = ना ही ठगे जा सकते है (माया उन को ठग नहीं सकती)।
उस (बख्शिश) अवस्था में पहुँचे हुए मनुष्य का मन पूरी तरह से अकाल-पुरख की वडिआईमें परोया रहता है, (उनके शरीर ऐसे कंचन सी चमक वाले हो जाते हैं कि) उनके सुंदर रूप का वर्णननहीं किया जा सकता। (उनके मुख पर नूर ही नूर लिशकारे मारता है)। (इस अवस्था में) मन में अकाल-पुरख बसता है, वे आत्मिक मौत नहीं मरतेऔर माया उनको ठग नहीं सकती।
तिथै भगत वसहि के लोअ ॥ करहि अनंदु सचा मनि सोइ ॥
वसहि = बसते हैं। लोअ = लोक, भवन। के लोअ = कई भवनों के (देखें पउड़ी 34 में ‘के रंग’)। करहि अनंदु = आनन्द करते हैं, सदा खुश रहते हैं। सचा सोइ = वह सच्चा हरि। मनि = (उनके) मन में है।
उस अवस्था में कई भवनों के भक्तजन बसते हैं, जो सदा प्रसन्न रहते हैं, (क्योंकि) वह सच्चा अकाल पुरख उनके मन में (मौजूद) है।
सच खंडि वसै निरंकारु ॥ करि करि वेखै नदरि निहाल ॥
सचि = सच में। सचि खंडि = सचखण्ड में। करि करि = सृष्टि रच के। नदरि निहाल = निहाल करने वाली नजर से। वेखै = देखता है, संभाल करता है।
सच खंड में (भाव, अकाल-पुरख के साथ एकरूप होने वाली अवस्था में) मनुष्य के अंदर वह अकाल-पुरख खुद ही बसता है, जो सृष्टि को रच रच के मेहर की नजर से उसकी संभाल करता है।
तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ जे को कथै त अंत न अंत ॥
तिथै लोअ लोअ आकार ॥ जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ॥
वेखै विगसै करि वीचारु ॥ नानक कथना करड़ा सारु ॥३७॥
वरभंड = ब्रह्मिण्ड। को = कोई मनुष्य। कथै = बताने लगे, बयान करे। त अंत न अंत = इन खण्डों मण्डलों तथा ब्रह्मिण्डों के अंत नहीं पाये जा सकते। लोअ लोअ = कई लोक, कई भवन। विगसै = विगसता है, खुश होता है। करि वीचारु = वीचार करके। कथना = कथन करना, बयान करना। सारु = इस शब्द को समझने के लिए उदाहरण के तौर पे नीचे लिखे प्रमाण दिए जा रहे हैं:
सारु = लोहा। करड़ा सारु = सख्त जैसे लोहा है।
उस अवस्था में (भाव, अकाल-पुरख के साथ एकरूप होने वाली अवस्था में) मनुष्य को बेअंत खण्ड, मण्डल व बेअंत ब्रह्मिण्ड (दिखाई देते हैं, इतने बेअंत कि) यदि कोई मनुष्य उनका कथन करने लगे, तो उसकी कमी नहीं पड़ सकती,कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला। उस अवस्था में बेअंत भवन तथा आकार दिखाई देते हैं (जिस सभी में) उसी तरह कार-व्यवहार चल रहा है जिस तरह अकाल-पुरख का हुक्म होता है (भाव, इस अवस्था में पहुँच के मनुष्य को हर जगह अकाल-पुरख की रजा वर्तती दिखती है)। (उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि) अकाल-पुरख विचार करके (सभ जीवों की) संभाल करता है और खुश होता है। हे नानक! इस अवस्था का कथन करना बहुत मुश्किल है (भाव, ये अवस्था बयान नहीं हो सकती, अनुभव ही की जा सकती है बस!)।37।
जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥ अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥
जतु = अपनी शारीरिक इन्द्रियों को विकारों से रोक के रखना। पाहारा = सुनियारे की दुकान। सुनिआरु = सोनार। अहिरण = सोना ढालने वाला आधार। मति = अक्ल, बुद्धि। वेदु = ज्ञान। हथिआर = हथौड़ा।
(यदि) जत-रूप दुकान (हो), धैर्य सोनार बने, मनुष्य की अपनी बुद्धि अहिरण हो, (उस मति अहिरण पर) ज्ञान का हथौड़ा (चोट करे)।
भउ खला अगनि तप ताउ ॥
भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि ॥ घड़ीऐ सबदु सची टकसाल ॥
भउ = अकाल-पुरख का डर। खला = खलां, धौंकनी, फूकनी (जिससे सोनारे फूक मार के आग सुलगाते हैं)। भाउ = प्रेम। अंम्रितु = अमृत: अकाल-पुरख का अमर करने वाला नाम। तितु = उस बरतन में। घढ़ीऐ = घढ़ा जाता है। घढ़ीऐ शबद = शब्द ढाला जाता है। सची टकसाल = ऊपर वर्णित सच्ची टकसाल में।
(यदि) अकाल-पुरख का डर धौंकनी (हो), मेहनत आग (हो), प्रेम कुठाली हो, तो (हे भाई!) उस (कुठाली) में अकाल-पुरख का अमृत साथ गलाओ, (क्योंकि ऐसी ही) सच्ची टकसाल में (गुरु का) शब्द घढ़ा जा सकता है।
जिन कउ नदरि करमु तिन कार ॥ नानक नदरी नदरि निहाल ॥३८॥
जिन कउ = जो मनुष्यों पर। नदरि = मेहर की नज़र। करमु = बख्शिश। तिन कार = उन मनुष्यों की ही ये कार (कार्यशैली/कार्य-व्यवहार) है (भाव, वे मनुष्य जो ऊपर बताई गई टकसाल तैयार करके शब्द की घाढ़त घढ़ते हैं)। निहाल = प्रसन्न, खुश, आनन्द। नदरी = मिहर की नजर करने वाला प्रभु।
ये कार्य-व्यवहार उन्हीं मनुष्यों का ही है, जिस पे मेहर की नजर होती है। हे नानक! वे मनुष्य अकाल-पुरख की कृपा-दृष्टि से निहाल हो जाते हैं।38
सलोकु ॥
पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥
दिवसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥
पवणु = हवा, स्वास, प्राण। महतु = बड़ी, विशाल। दिवसु = दिन। दुइ = दोनों। दिवसु दाइआ = दिन खिलावा है। राति दाई = रात खिलावी है। सगल = सारा।
प्राण (शरीर में इस प्रकार हैं जैसे) गुरु (जीवों की आत्मा के लिए) है। पानी (सभी जीवों का) पिता है और धरती (सबकी) बड़ी माँ है। दिन और रात दोनों खेल खिलाने वाला और खिलाने वाली हैं, सारा संसार खेल रहा है (भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने में और दिन के कार्य-व्यवहार में परखे जा रहे हैं)
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरमु हदूरि ॥
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥
वाचै = परखता है, लिखे हुए को पढ़ता है। हदूरि = अकाल-पुरख की हजूरी में, अकाल-पुरख के दर पर। करमी = कर्मों अनुसार। के = कई जीव। नेड़ै = अकाल-पुरख के नज़दीक।
धर्मराज अकाल पुरख की हज़ूरी में (जीवों के किये हुए) सही कामों को विचारता है। अपने-अपने (इन किए हुये) कर्मों के अनुसार कई जीव अकाल-पुरख के नज़दीक हो जाते हैं और कई अकाल-पुरख से दूर रह जाते हैं।
जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥
नानक ते मुख उजले केती छुटी नालि ॥१॥
जिनी = जो मनुष्यों ने। ते = वे मनुष्य। धिआइआ = ध्यान किया है, स्मरण किया है। मसकति = मुशक्कत, मेहनत। घालि = सफल करके। मुख उजले = उज्जवल चेहरे वाले। केती = कई जीव। छुटी = मुक्त हो गई, माया के बंधनों से रहित हो गई। नालि = उन (गुरमुखों) की संगत में।
हे नानक! जो मनुष्यों ने अकाल-पुरख का नाम स्मरण किया है, वे अपनी मेहनत सफल कर गये हैं। (अकाल-पुरख के दर पर) वे उज्जवल मुख वाले हैं और (और भी) कई जीव, उनकी संगत में (रह के) (‘कूड़ की पालि’ गिरा के माया के बंधनों से) आज़ाद हो गए हैं।1।
सो दरु रागु आसा महला १
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥
वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥
केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥
केहा = कैसा? , आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहाँ। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तूने संभाल की है, तू संभाल कर रहा है। नाद = आवाजें, शब्द, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = राग परी, रागनियां। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहिअहि = कहे जाते हैं।
(हे प्रभु!) तेरा वह घर और (उस घर का) वह दरवाजा बड़ा ही आश्चर्य भरा है जहाँ बैठ के तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरत में) अनेक और अनगिनत वाजे (संगीत-यंत्र) और राग हैं; बेअंत ही जीव (इन बाजों को) बजाने वाले हैं। रागनियों समेत बेअंत ही रागों के नाम लिए जाते हैं। अनेक ही जीव (इन राग रागनियों के द्वारा तुझे) गाने वाले हैं (तेरी तारीफ के गीत गा रहे हैं)।
गावनि तुधनो पवणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥
गावनि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु बीचारे ॥
गावनि = गाते हैं। तुध नो = तुझे। बैसंतरु = आग। गावै = गाता है। राजा धरमु = धर्मराज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = प्राचीन हिन्दू ख्याल चला आ रहा है कि ये दोनों व्यक्ति चित्र और गुप्त सारे जीवों के किए हुए अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते रहते हैं। लिखि जाणहि = लिखना जानते हैं। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, अर्थात, जो कुछ वह चित्रगुप्त लिखते रहते हैं।
(हे निरंकार!) पवन, पानी, अग्नि (आदि तत्व) तेरा गुण गान कर रहे हैं (तेरी मर्जी में चल रहे हैं)। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा होकर) तेरी स्तुति कर रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेखे) लिखने जानते हैं और जिनके लिखे हुए को धर्मराज विचारता है, तेरी महानताओं का गुणगान कर रहे हैं।
गावनि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥
गावनि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥
ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा। देवी = देवियां। सोहनि = सुशोभित होते हैं, सुंदर लगते हैं। सवारे = तेरे द्वारा सवाँरे हुए। इंद = इंद्र देवते। इदासणि = (इंद-आसणि) इंद्र के आसन पर। देवतिआं नाले = देवताओं के समेत।
(हे अकाल पुरख!) अनेक देवियां, शिव व ब्रह्मा, जो तेरे संवारे हुए हैं सदा (तेरे दर पे) शोभायमान होकर तुझे गा रहे हैं (तेरे गुण गा रहे हैं)। कई इंद्र देवते अपने तख्त पे बिराजमान देवताओं समेत तुझे गा रहे हैं (तेरी महिमा के गीत गा रहे हैं)।
गावनि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावनि तुधनो साध बीचारे ॥
गावनि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥
समाधी अंदरि = समाधि में लीन हो के। सिध = योग साधनाओं में लगे हुए योगी, वह व्यक्ति जो मनुष्य श्रेणी से ऊपर और देवताओं से नीचे। ये सिध पवित्रता के पुँज थे और आठों प्रकार की सिद्धियों के मालिक समझे जाते हैं। बिचारे = विचारि, विचार के। सती = दानी, दान करने वाले। वीर करारे = तगड़े शूरवीर।
(हे प्रभु!) सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं। साधु जन (तेरे गुणों का) चिंतन कर कर के तुझे सालाह रहे हैं। जती, दानी और संतोषी पुरष भी तेरा गुणगान कर रहे हैं और (बेअंत) महाबली योद्धे तेरी ही वडिआईयां कर रहे हैं।