*Guruvaani - 7*

 

*आदेसु तिसै आदेसु ॥*
*आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२९॥*

```(सो, झूठ की दीवार दूर करने के लिए) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव इकसार रहता है।29।```

*एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥*
*इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥*

एका = अकेली। माई = माया। जुगति = युक्ति से, तरीके से। विआई = प्रसूति हुई, गर्भवती। तिनि = इस शब्द के तीन स्वरूप हैं: ‘तिन’,‘तिनि’ और ‘तीनि’। ‘तीनि’ का अर्थ है तीन की गिनती।
परवाणु = प्रत्यक्ष। संसारी = घरबारी, घर बार वाला व्यक्ति। भण्डारी = भण्डारे का मालिक, रिजक देने वाला। लाए = लगाता है। दीबाणु = दरबार, कचहरी।

```(लोगों में ये ख़्याल आम प्रचलित है कि) अकेली माया (किसी) जुगति (युक्ति) से गर्भवती हुई और प्रत्यक्ष तौर पे उसके तीन पुत्र पैदा हो गए। उनमें से एक (ब्रह्मा) घरबारी बन गया (भाव, जीव-जन्तुओं को पैदा करने लग पड़ा), एक (विष्णु) भण्डारे का मालिक बन गया (भाव, जीवों को रिजक पहुँचाने का काम करने लगा), और एक (शिव) कचहरी लगाता है (भाव, जीवों को संहारता है)।```

*जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥*
*ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥*

जिव = जिस तरह। तिसु = उस अकाल-पुरख को। चलावै = (संसार की कार्यवाही) चलाता है। फुरमाणु = हुक्म। ओहु = अकाल-पुरख। ओना = जीवों को। नदरि न आवै = दिखाई नहीं देता। विडाणु = आश्चर्यजनक चमत्कार।

```(पर असल में बात ये है कि) जिस तरह उस अकाल-पुरख को ठीक लगता है और जैसे उसका हुक्म होता है, वैसे ही वह संसार की (कार) कार्यवाही चला रहा है, (इन ब्रह्मा, विष्णु और शिव के हाथ में कुछ नहीं)। ये बड़ा आश्चर्य जनक चमत्कार है कि वह अकाल-पुरख (सभी जीवों को) देख रहा है, पर जीवों को अकाल-पुरख नहीं दिखाई देता।```

*आदेसु तिसै आदेसु ॥*
*आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३०॥*

```(सो, ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि की जगह) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव एक जैसा ही रहता है (यही है तरीका उस प्रभु से दूरी दूर करने का)।30।```

*आसणु लोइ लोइ भंडार ॥ जो किछु पाइआ सु एका वार ॥*
*करि करि वेखै सिरजणहारु ॥ नानक सचे की साची कार ॥*

आसणु = टिकाणा। लोइ = लोक में। लोइ लोइ = हरेक भवन में। आसणु भंडार = भण्डारों का टिकाना। पाइआ = उस अकाल-पुरख ने डाल दिया है। करि करि = (जीवों को) पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। सिरजणहारु = सृष्टि को पैदा करने वाला अकाल-पुरख। साची = सदैव अटल रहने वाली।

```अकाल-पुरख के भण्डारों का ठिकाना हरेक भवन में है (भाव, हरेक भवन में अकाल-पुरख के भण्डारे चल रहे हैं)। जो कुछ (अकाल-पुरख ने उन भण्डारों में) डाला है, एक बार में ही डाल दिया है (भाव, उसके भण्डारे सदा अतुट हैं)। सृष्टि को पैदा करने वाला अकाल-पुरख (जीवों को) पैदा करके (उनकी) सम्भाल कर रहा है। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले (अकाल-पुरख) की (सृष्टि की संभाल वाली) यह कार सदा अटल है।```

*आदेसु तिसै आदेसु ॥*
*आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३१॥*

```(सो) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव एक जैसा ही रहता है (यही है तरीका उस प्रभु से दूरी मिट सकती है)।31।```

*इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख वीस ॥*
*लखु लखु गेड़ा आखीअहि एकु नामु जगदीस ॥*

इक दू = एक से। इक दू जीभौ = एक जीभ से। होहि = हो जाएं। लख = लाख (जीभें)। लख होवहि = लाख जीभों से हो जाएं। लख वीस = बीस लाख। गेड़ा = फेरे, चक्कर। आखीअहि = कहे जाएं। एकु नामु जगदीस = जगदीश का एक नाम। जगदीश = जगत का ईश, जगत का मालिक, अकाल-पुरख।

```यदि एक जीभ (जिहवा) से लाखों जीभें हो जाएं, और लाखों जीभों से बीस लाख बन जाएं, (इन बीस लाख जीभों से) अकाल-पुरख के एक नाम को एक-एक लाख बार कहें (तो भी झूठे मनुष्य की झूठी ही ठीस है, अर्थात, जो ये सोचे कि मैं अपनी मेहनत के बल पर इस तरह नाम स्मरण करके अकाल-पुरख को पा सकता हूँ, तो ये एक झूठा अहंकार है)।```

*एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीऐ होइ इकीस ॥*
*सुणि गला आकास की कीटा आई रीस ॥*

एतु राहि = इस रास्ते में, अकाल-पुरख को मिलने वाले रास्ते में। पति पवड़ीआ = पति की सीढ़ियां, पति को मिलने के लिए जो पौड़ियां हैं। चढ़ीऐ = चढ़ते है, चढ़ सकते हैं। होइ इकीस = एक रूप हो के, स्वैभाव मिटा के। सुणि = सुन के। कीटा = कीड़ीयों को।

```इस रास्ते में (परमात्मा से दूरी दूर करने वाले राह में) अकाल-पुरख को मिलने के लिए जो सीढ़ीयां हैं, उन के ऊपर स्वैभाव गवा के ही चढ़ सकते हैं। (लाखों जीभों के साथ भी गिनती के स्मरण से कुछ नहीं बनता। अहम् भाव दूर करने के बिना इन गिनती के पाठों का उद्यम यूँ है, मानों) आकाश की बातें सुन के कीड़ियों को भी ये रीस आ गयी है (कि हम भी आकाश पर पहुँच जाएं)।```

*नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥*

नदरी = अकाल-पुरख की मेहर की नज़र से। पाईऐ = पाते हैं, अकाल-पुरख को प्राप्त करते हैं। कूड़े = झूठे मनुष्य की। कूड़ी ठीस = झूठी गप, खुद की झूठी महानता।

```हे नानक! यदि अकाल-पुरख मेहर की नज़र करे, तभी उससे मिला जा सकता है, (वर्ना) झूठे मनुष्य की खुद की निरी झूठी ही वडियाई है (कि मैं स्मरण कर रहा हूँ)।33।```

*आखणि जोरु चुपै नह जोरु ॥ जोरु न मंगणि देणि न जोरु ॥*
*जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु ॥ जोरु न राजि मालि मनि सोरु ॥*

आखणि = कहने में, बोलने में। चुपै = चुप रहने में। जोरु = ताकत, स्मर्था, इख्यिार,अपने मन की मर्जी। मंगणि = मांगने में। देणि = देने में। मरणि = मरने में। राजि मालि = राजमाल में, राज वैभव प्राप्त करने में। सोरु = शोर, हल्ला, फूँ फां।

```बोलने में और चुप रहने में भी हमारा कोई अपना इख्तियार नहीं है। ना ही मांगने में हमारी मन-मर्जी चलती है और ना ही देने में। जीने में और मरने में भी हमारी कोई ताकत (काम नहीं देती)। इस राज व वैभव की प्राप्ति में भी हमारा कोई जोर नहीं चलता (जिस राज माल की वजह से हमारे) मन में इतनी फूँ-फां होती है।```

*जोरु न सुरती गिआनि वीचारि ॥ जोरु न जुगती छुटै संसारु ॥*
*जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ ॥ नानक उतमु नीचु न कोइ ॥३३॥*

सुरती = सोच में, आत्मिक चेतन्यता में। गिआनि = ज्ञान (प्राप्त करने) में। वीचारि = विचार (करने) में। जुगती = जुगत में, रहित में। छुटै = मुक्त होता है, समाप्त हो जाता है।
जिसु हथि = जिस अकाल-पुरख के हाथ में। करि वेखै = (सृष्टि की) रचना करके सम्भाल कर रहा है। सोइ = वह अकाल-पुरख। संसारु = जनम मरण।

```आत्मिक जागृति अवस्था में, ज्ञान में और विचार में रहने की भी हमारी स्मर्था नहीं है। उस जुगती में रहने के लिए भी हमारा इख्तियार नहीं है कि जिससे जनम मरण खत्म हो सके। वही अकाल-पुरख रचना रच के (उसकी हर प्रकार से) सम्भाल करता है, जिसके हाथ में स्मर्था है। हे नानक! अपने आप में ना कोई मनुष्य उत्तम है और ना ही नीच (भाव, जीवों को सदाचारी या दुराचारी बनाने वाला भी वह प्रभु स्वयं ही है) (अगर नाम जपने की बरकत से ये निश्चय बन जाए तो ही प्रमात्मा से जीव का फासला दूर होता है।33।```

*राती रुती थिती वार ॥ पवण पाणी अगनी पाताल ॥*
*तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल ॥*
*तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥ तिन के नाम अनेक अनंत ॥*

राती = रातें। रुती = ऋतुऐं। वार = दिन। पवण = सभ प्रकार कीहवा। पाताल = सारे पाताल। तिसु विचि = इन सभी के समुदाय में।
थापि रखी = स्थापित की है, रख के टिका दी है। धरमसाल = धर्म कमाने का स्थान। तिसु विचि = उस धरती पे। जीअ = जीव जन्तु। जीअ जुगति = जीवों की जुगति, जीवों के रहने की युक्ति (बना दी) है।
के रंग = कई रंगों के। तिन के = उन जीवों के। अनंत = बेअंत।

```रातें, ऋतुएं, तिथिआं और वार, हवा, पानी, अग्नि व पाताल- इन सभी की एकत्रता में (अकाल-पुरख ने) धरती को धर्म कमाने का स्थान बना के टिका दिया है। इस धरती पर कई जुगतियों और रंगों के जीव (बसते हैं), जिनके अनेक और अनगिनत नाम हैं।```

*करमी करमी होइ वीचारु ॥ सचा आपि सचा दरबारु ॥*
*तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥ नदरी करमि पवै नीसाणु ॥*

करमी करमी = जीवों के किए हुए कर्मों अनुसार। तिथै = अकाल-पुरख के दरबार में। सोहनि = शोभायमान होते है। परवाणु = प्रत्यक्ष तौर पे। नदरी = मेहर की नजर करने वाला अकाल-पुरख। करमि = करम द्वारा, रहमत से। नदरी करमि = अकाल-पुरख की बख्शिश से। पवै नीसाणु = निशान पड़ जाता है, महानता का चिन्ह (माथे पे) चमक पड़ता है, निशान लग जाता है।

```(इन अनेक नामों और रंगों वाले जीवों के) अपने-अपने किये कर्मों के अनुसार (अकाल-पुरख के दर पे) निर्णय होता है (जिसमें कोई कोताही नहीं होती क्योंकि न्याय करने वाला) अकालपुख खुद सच्चा है, उसका दरबार भी सच्चा है। उस दरबार में संत जन प्रत्यक्ष तौर पे शोभायमान होते हैं और मेहर की नजर करने वाले अकाल-पुरख की बख्शिश से (उन संत जनों के माथे पे) वडियाई का निशान चमक पड़ता है।```

*कच पकाई ओथै पाइ ॥ नानक गइआ जापै जाइ ॥३४॥*

कच = कच्चा। पकाई = पक्के। ओथै = अकाल-पुरख की दरगाह में। पाइ = पाई जाती है, पता लगती है। गइआ = जा के ही, पहुँच के ही। जापै जाइ = जाना जाता है, देखा जाता है, पता चलता है।

```(यहाँ संसार में किसी का बड़ा छोटा कहलाना कोई मायने नहीं रखता, इनके) कच्चे-पक्के की परख तो अकाल-पुरख के दर पे होती है। हे नानक! अकाल-पुरख के दर पर पहुँच के ही ये समझ आती है (कि असल में कौन पक्का है कौन कच्चा)।```

*धरम खंड का एहो धरमु ॥ गिआन खंड का आखहु करमु ॥*

धरमु = कर्तव्य, फर्ज। आखहु = बताओ, वर्णन करो, समझ लो। करम = काम, कर्तव्य। एहो = यही जो ऊपर बताया गया है।

```धर्म खण्ड का मात्र यही कर्तव्य है, (जो ऊपर बताया गया है)। अब ज्ञान खण्ड के कर्तव्यों को भी समझ लो (जो अगली तुकों में है)।```

*केते पवण पाणी वैसंतर केते कान महेस ॥*
*केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥*

केते = कई, बेअंत। वैसंतर = अग्नियां। महेस = (कई) शिव। बरमे = कई ब्रह्मा। घाढ़ति घढ़ीअहि = घाढ़त घढ़ी जाती है, पैदा किए जाते हैं। के वेस = कई वेशों में (इस ‘के’ के अर्थ के लिए देखिए पौड़ी नंबर = 34)।

```(अकाल-पुरख की रचना में) कई प्रकार की पवन, पानी और अग्निायां हैं, कई कृष्ण हैं और कई शिव हैं। कई ब्रह्मा पैदा किए जा रहे हैं, जिस के कई रूप, कई रंग और कई वेश हैं।```

*केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥*
*केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥*
*केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥*

केतीआ = कई, बेअंत। करम भूमी = काम करने की भूमियां, धरतियां। मेर = मेरु पर्वत। धू = ध्रुअ भक्त। उपदेश = उन ध्रुअ भक्तों के उपदेश। इंद = इंद्र देवते। चंद = चंद्रमा। सूर = सूर्य। मंडल देस = भवण-चक्र। बुध = बुद्ध अवतार। देवी वेस = देवियों के पहिरावे में, देवियों के परिधान में।

```(अकाल-पुरख की कुदरत में) बेअंत धरतियां हैं, बेअंत मेरु पर्बत, बेअंत ध्रुअ भक्त व उनके उपदेश हैं। बेअंत इंद्र देवते, चंद्रमा, बेअंत सूरज और बेअंत भवन-चक्र हैं। बेअंत सिद्ध हैं, बेअंत बुद्ध अवतार हैं, बेअंत नाथ हैं और बेअंत देवियों के पहिरावे हैं।```

*केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥*
*केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥*
*केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु ॥३५॥*

दानव = राक्षस, दैंत। मुनि = मौन धारी ऋषि। रतन समुंद = रतन और समुंदर। पात = पातशाह। नरिंद = राजे। सुरति = सोच, लगन, ध्यान।

```(अकाल-पुरख की रचना में) बेअंत देवते व दैंत हैं, बेअंत मुनि हैं, बेअंत प्रकार के रतन तथा (रत्नों के) समुंदर हैं। (जीव रचना की) बेअंत खाणीयां हैं। (जीवों की बोली भी चार नहीं) बेअंत बाणियां हैं। बेअंत बादशाह और राजे हैं, बेअंत प्रकार के ध्यान हैं (जो जीव मन द्वारा लगाते हैं), बेअंत सेवक हैं। हे नानक! कोई अंत नहीं पा सकता।35।```

*गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥ तिथै नाद बिनोद कोड अनंदु ॥*

महि = में। परचंड = तेज़, प्रबल, बलवान। तिथै = उस ज्ञानखंड। मेंनाद = राग। बिनोद = तमाशे। कोड = कौतक, चमत्कार। अनंदु = स्वाद, मज़ा।

```ज्ञानखण्ड में (भाव मनुष्य की ज्ञान अवस्था में) ज्ञान ही बलवान होता है। इस अवस्था में (मानों) सभी रागों, तमाशों व चमत्कारों का आनन्द आ जाता है।```