*Guruvaani - 46*

 

*सिरीरागु महला ५ ॥ मिलि सतिगुर सभु दुखु गइआ हरि सुखु वसिआ मनि आइ ॥ अंतरि जोति प्रगासीआ एकसु सिउ लिव लाइ ॥ मिलि साधू मुखु ऊजला पूरबि लिखिआ पाइ ॥ गुण गोविंद नित गावणे निरमल साचै नाइ ॥१॥*

सभु = सारा। हरि सुखु = परमात्मा (के मिलाप) का सुख। मनि = मन में। आइ = आ के। अंतरि = अंदर, मन में। एकसु सिउ = एक (परमात्मा) से। लाइ = लगा के। मिलि = मिल के। साधू = गुरु। ऊजला = रोशन। पूरबि = पहिले (जनम के) समय में। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)।1।

```सतिगुरु को मिल के (मनुष्य का) सारा दुख दूर हो जाता है। परमात्मा के (चरणों) में तवज्जो जोड़ के मनुष्य के मन में परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है। गुरु को मिल के मनुष्य का मुंह रोशन हो जाता है (चेहरे पर अंदर के आत्मिक जीवन की लाली आ जाती है), पहिले जनम में की गई नेक कमाई के लिखे हुए लेख सामने आ जाते हैं। सदा स्थिर प्रभु के पवित्र नाम में (जुड़ के) मनुष्य सदा गोविंद के गुण गाने की उत्सुक्ता रखता है।1।```

*मेरे मन गुर सबदी सुखु होइ ॥ गुर पूरे की चाकरी बिरथा जाइ न कोइ ॥१॥ रहाउ॥*

मन = हे मन! चाकरी = सेवा। बिरथा = वृथा, खाली।1। रहाउ।

```हे मेरे मन! गुरु के शब्द में जुड़ने से आत्मिक आनंद मिलता है जो भी कोई मनुष्य पूरे गुरु की सेवा करता है (भाव, पूरे गुरु के शब्द अनुसार चलता है) वह (गुरु के दर से) खाली नहीं जाता।1। रहाउ।```

*मन कीआ इछां पूरीआ पाइआ नामु निधानु ॥ अंतरजामी सदा संगि करणैहारु पछानु ॥ गुर परसादी मुखु ऊजला जपि नामु दानु इसनानु ॥ कामु क्रोधु लोभु बिनसिआ तजिआ सभु अभिमानु ॥२॥*

निधानु = खजाना। अंतरजामी = (जीवों के दिल के) अंदर पहुँच जाने वाला। संगि = अंग-संग। पछानु = जान पहिचान का, मित्र। परसादी = प्रसाद से, कृपा से। जपि = जप के। दानु = सेवा। इसनानु = पवित्र आचरण। अभिमानु = अहंकार।2।

```(गुरु के शब्द में जुड़ के जो मनुष्य) परमात्मा के नाम का खजाना ढूंढ लेता है, उसके मन की सारी ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं। (अर्थात, उसका मन दुनियावी वासनाओं पीछे दौड़ने से हट जाता है)। हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा उस मनुष्य को सदा अपने अंग-संग दिखता है, निर्माता प्रभु उसको अपना मित्र प्रतीत होता है। गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम जपके (दूसरों की) सेवा (कर के) पवित्र आचरण (बना के) उसका मुंह चमक उठता है। उस मनुष्य के अंदर से काम-क्रोध-लोभ का नाश हो जाता है। वह मनुष्य अहंकार तो बिल्कुल ही त्याग देता है।2।```

*पाइआ लाहा लाभु नामु पूरन होए काम ॥ करि किरपा प्रभि मेलिआ दीआ अपणा नामु ॥ आवण जाणा रहि गइआ आपि होआ मिहरवानु ॥ सचु महलु घरु पाइआ गुर का सबदु पछानु ॥३॥*

लाहा = लाभ, नफा। काम = (सारे) काम। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। रहि गइआ = समाप्त हो गया। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। महलु = ठिकाना। पछानु = जाना हुआ, साथी।3।

```प्रभु ने कृपा करके जिस मनुष्य को (अपने चरणों में) जोड़ लिया और अपना नाम बख्शा, उस ने (जब) परमात्मा का नाम (जीवन के व्यापार में) बतौर लाभ हासिल कर लिया, तो उस के सारे काम सफल हो गए (तृष्णा अधीन हो रही दौड़ भाग खत्म हो गई)।```
```जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद मेहर करता है, उसके जन्म मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है। गुरु का शब्द उस मनुष्य का (जीवन-) साथी बन जाता है। सदा स्थिर प्रभु के चरण उस को ऐसा ठिकाना मिल जाता है, जिस को वह अपना (आत्मिक) घर बना लेता है।3।```

*भगत जना कउ राखदा आपणी किरपा धारि ॥ हलति पलति मुख ऊजले साचे के गुण सारि ॥ आठ पहर गुण सारदे रते रंगि अपार ॥ पारब्रहमु सुख सागरो नानक सद बलिहार ॥४॥११॥८१॥*

कउ = को। धारि = धारण करके। हलति = इस लोक में, अत्र। पलति = परलोक में, परत्र। सारि = संभाल के। सारदे = संभालते। रंगि = रंग में, प्रेम में। सुख सागरो = सुख का समुंदर, सुख का स्रोत। सद = सदा।4।

```अपनी कृपा करके परमात्मा अपने भक्तों को (काम-क्रोध-लोभ आदि विकारों से) बचा के रखता है। सदा स्थिर प्रभु के गुण (हृदय में) संभाल के उन (भक्तों) के मुंह इस लोक में और परलोक में रोशन हो जाते हैं। वह (भक्त) बेअंत प्रभु के (प्यार-) रंग में रंगे रहते हैं और आठों पहर उस के गुण (अपने दिल में) संभालते हैं। हे नानक! पारब्रहम परमात्मा उनको सारे सुखों का समुंदर दिखता है, और वो उससे सदा सदके होते रहते हैं।4।11।81।```

*सिरीरागु महला ५ ॥ पूरा सतिगुरु जे मिलै पाईऐ सबदु निधानु ॥ करि किरपा प्रभ आपणी जपीऐ अम्रित नामु ॥ जनम मरण दुखु काटीऐ लागै सहजि धिआनु ॥१॥*

सबदु = महिमा की वाणी। निधानु = खजाना। प्रभ = हे प्रभु! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जनम मरण दुखु = जनम मरन (के चक्कर का) दुख। सहजि = आत्मिक अडोलता मे।1।

```(हे मन!) अगर पूरा गुरु मिल जाए, तो (उससे) परमात्मा की महिमा का खजाना मिल जाता है। हे प्रभु! अपनी मेहर कर (गुरु मिला, ता कि) आत्मिक जीवन देने वाला (तेरा) नाम (हम) जप सकें। जनम मरन के चक्कर में पड़ने का हम अपना दुख दूर कर सकें और हमारी तवज्जो आत्मिक अडोलता में टिक जाए।1।```

*मेरे मन प्रभ सरणाई पाइ ॥ हरि बिनु दूजा को नही एको नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥*

प्रभ सरणाई = प्रभु की शरण में। पाइ = पड़ो।1। रहाउ।

```हे मेरे मन! प्रभु की शरण पड़। प्रभु के बिना कोई और (रक्षक) नहीं है। (हे मन!) प्रभु का नाम स्मरण कर।1। रहाउ।```

*कीमति कहणु न जाईऐ सागरु गुणी अथाहु ॥ वडभागी मिलु संगती सचा सबदु विसाहु ॥ करि सेवा सुख सागरै सिरि साहा पातिसाहु ॥२॥*

सागरु गुणी = गुणों का सागर। वडभागी = हे भाग्यशाली मन! विसाहु = विहाझ। सुख सागरै = सुखों के सागर प्रभु की। सिरि = सिर पे।2।

```परमात्मा (सारे) गुणों का समुंदर है, (ऐसा समुंदर है जिसकी) गहराई का अंत नहीं मिल सकता। उसका मुल्य ही नहीं बताया जा सकता (अर्थात, कीमती से कीमती कोई ऐसी चीज नहीं जिसके बदले परमात्मा मिल सके)। हे (मेरे) भाग्यशाली (मन!) साधु-संगत में मिल बैठ, (और वहां) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा की वाणी (का सौदा) खरीद। (साधु-संगत में विधि, तरीका सीख के) सुखों के सागर प्रभु की सेवा भक्ति कर। वह प्रभु (दुनिया के) शाहों के सिर पर बादशाह है।2।```

*चरण कमल का आसरा दूजा नाही ठाउ ॥ मै धर तेरी पारब्रहम तेरै ताणिरहाउ ॥ निमाणिआ प्रभु माणु तूं तेरै संगि समाउ ॥३॥*

चरण कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। ठाउ = जगह, आसरा। मै = मुझे। धर = आसरा। तेरै ताणि = तेरे आसरे। रहाउ = रहूं, मैं रहता हूं। प्रभ = हे प्रभु! 3।

```(हे पारब्रह्म! मुझे तेरे ही) सुंदर चरणों का आसरा है। (तेरे बिना) मेरे लिए और कोई जगह नहीं है, मुझे तेरी ही ओट है, मैं तेरे (दिये) बल से ही जीता हूँ। हे प्रभु! जिनको जगत में कोई आदर-सत्कार नहीं देता, तूं उनका भी सम्मान (का जरीआ) है। (मेहर कर) मैं तेरे चरणों में लीन रहूँ।3।```

*हरि जपीऐ आराधीऐ आठ पहर गोविंदु ॥ जीअ प्राण तनु धनु रखे करि किरपा राखी जिंदु ॥ नानक सगले दोख उतारिअनु प्रभु पारब्रहम बखसिंदु ॥४॥१२॥८२॥*

जीअ प्राण = जीवों के प्राण। दोख = पाप। उतारिअनु = उतारे+उन, उस ने उतार दिए हैं।4।

```(हे मेरे मन!) आठों पहर परमात्मा का नाम जपना चाहिए, गोबिंद को आराधना चाहिए। परमात्मा (शरण आए) जीवों के प्राणों को (विकारों से) बचाता है। ज्ञान इन्द्रियों को (विकारों से) बचाता है, उनके नाम-धन की रक्षा करता है। (शरण आए जीव की) जीवात्मा को मेहर करके (विकारों से) बचाता है। हे नानक! प्रभु पारब्रह्म बख्शणहार है, वह (शरण में आए के) सारे पाप दूर कर देता है।4।12।82।```

*सिरीरागु महला ५ ॥ प्रीति लगी तिसु सच सिउ मरै न आवै जाइ ॥ ना वेछोड़िआ विछुड़ै सभ महि रहिआ समाइ ॥ दीन दरद दुख भंजना सेवक कै सत भाइ ॥ अचरज रूपु निरंजनो गुरि मेलाइआ माइ ॥१॥*

सच सिउ = सदा स्थिर प्रभु से। जाइ = जाता, नाश होता है। आवै = पैदा होना। भंजना = नाश करने वाला। भाउ = प्रेम। सत भाइ = भली भावना से। निरंजनु = निर+अंजन, माया के प्रभाव से रहित। गुरि = गुरु ने। माइ = हे माँ!।1।

```हे मां! मेरी प्रीति (अब) उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के साथ लग गई है, जो कभी मरता नहीं, जो ना पैदा होता है ना मरता है। वह विछुड़ने से नहीं विछुड़ता। (हे मां!) वह परमात्मा सभ जीवों में समा रहा है। (हे मां!) गरीबों के दुख नाश करने वाला वह प्रभु सेवक को उसकी भली भावना के साथ मिलता है। उस प्रभु का सुंदर रूप है, उसपे माया का प्रभाव नहीं पड़ता। हे मां! वह परमात्मा मुझे मेरे गुरु ने मिला दिया है।1।```