*Guruvaani - 4*

 

*असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥ असंख सती असंख दातार ॥*

गुण विचारु = अकाल-पुरख के गुणों का ख्याल। गिआन वीचारु = (अकाल-पुरख के) ज्ञान का विचार। सती = सत धर्म वाले मनुष्य। दातार = दातें देने वाले, बख्शिश करने वाले।

```(अकाल-पुरख की कुदरत में) अनगिनत भक्त हैं, जो अकाल-पुरख के गुणों और ज्ञान की विचार कर रहे है, अनेक ही दानी व दाते हैं।```

*असंख सूर मुह भख सार ॥ असंख मोनि लिव लाइ तार ॥*

सूर = सूरमे, वीर, योद्धे। मुह = मुंहों पे। भखसार = सार भक्षण वाले,शास्त्रों के वार सहिने वाले। मोनि = चुप रहने वाले। लिव लाइ तार = लगन की तार लगा के, निरंतर चिंतन, एक रस तवज्जो जोड़ के।

```(अकाल-पुरख की रचना में) बेअंत शूरवीर हैं जो अपने मुँह पे (भाव, सनमुख हो के) शास्त्रों के वार सहन करते हैं, अनेक मौनी हैं, जो निरंतर बिर्ती जोड़ के बैठे हैं।```

*कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥*
*जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥*

```मेरी क्या ताकत है कि मैं करते की कुदरत की विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ (भाव मेंरी हस्ती बहुत तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है (भाव, तेरी रजा में रहना ही ठीक है)।17।```

*असंख मूरख अंध घोर ॥ असंख चोर हरामखोर ॥*
*असंख अमर करि जाहि जोर ॥*

मूरख अंध घोर = महामूर्ख, पहले दर्जे का मूर्ख। हरामखोर = पराया माल खाने वाले। अमर = हुक्म। जोर = धक्के से, जबरदस्ती। करि जाहि = कर के (अंत में इस संसार से) चले जाते हैं

```(निरंकार की रची हुई सृष्टि में) अनेक ही महामूर्ख हैं, अनेको ही चोर हैं, जो पराया माल (चुरा चुरा के) इस्तेमाल कर रहे हैं और अनेक ही ऐसे मनुष्य भी हैं जो (दूसरों पे) हुक्म चला के ज़ोर जबरदस्ती कर करके (अंत में इस संसार से) चले जाते हैं।```

*असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥ असंख पापी पापु करि जाहि ॥*

गलवढ = गला काटने वाले, कातिल, खूनी। हतिआ कमाहि = दूसरों का गला काटते हैं। पापु करि जाहि = पाप कमा के अंत को संसार से चले जाते हैं।

```अनेक ही खूनी मनुष्य लोगों का गला काट रहे हैं और अनेक ही पापी मनुष्य पाप कमा के (आखिर) इस दुनिया से चले जाते हैं।```

*असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥ असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥*

कूड़िआर = वह मनुष्य जिनके हृदय में झूठ के ठिकाने बने हुए हैं, झूठे स्वभाव वाले। कूड़े = झूठ में ही। फिराहि = फिरते हैं, परविर्त हैं, मशगूल हैं। मलेछ = मलीन बुद्धि वाले, खोटी मति वाले मनुष्य। खाहि = खाते हैं। भखि खाहि = भूखों की तरह बेसब्री से खाना। (‘भख’ और ‘खाहि’ दोनों ही संस्कृत की धातु हैं, दोनों का अर्थ है ‘खाना’। तीसरी पउड़ी में भी एक ऐसी ही ‘खाही खाहि’ क्रिया आ चुकी है)।

```अनेकां ही झूठ बोलने वाले स्वभावके मनुष्य झूठ में ही लिप्त रहते हैं और अनेक ही खोटी बुद्धि वाले मनुष्य मल (अभक्ष) ही खाए जा रहे हैं।```

*असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥ नानकु नीचु कहै वीचारु ॥*

सिरि = अपने सिर ऊपर। सिरि करहि भारु = अपने सिर पे भार उठाते हैं।
नानकु नीचु = नीच नानक, नानक विचारा, गरीब नानक।

```अनेक ही निंदक (निंदा कर के) अपने सिर ऊपर (निंदा का) भार उठा रहे हैं। (हे निरंकार!) अनेक और जीव कई और कुकर्मों में फसे होंगे, मेरी क्या ताकत है कि तेरी कुदरत का पूरा विचार कर सकूँ? नानक विचारा (तो) ये (उपरोक्त तुच्छ सी) विचार पेश करता है।```

*वारिआ न जावा एक वार ॥*
*जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥*

```(हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ (भाव, मैं तेरी बेअंत कुदरत का पूरा विचार करने के लायक नहीं हूँ)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है (भाव, तेरी रजा में रहना ही ठीक है; तेरी स्तुति करते रहें हम जीवों के लिए यही भली बात है कि तेरी रज़ा में रहें)।```

*असंख नाव असंख थाव ॥ अगम अगम असंख लोअ ॥*
*असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥*

नाव = (कुदरत के अनेक जीवों और बेअंत पदार्तों के) नाम। अगंम = जिस तक (किसी की) पहुँच ना हो सके। लोअ = लोक, भवण। असंख लोअ = अनेक ही भवण। कहहि = कहते हैं (जो मनुष्य)। सिरि = उनके सिर पे। होइ = होता है।

```(कुदरत के अनेक जीवों व अन्य बेअंत पदार्तों के) असंखों ही नाम हैं। असंखों ही (उनके) स्थान-ठिकाने हैं। (कुदरत में) असंखों ही भवण हैं जिस तक मनुष्य की पहुँच नहीं हो सकती। (पर, यदि मनुष्य कुदरत का लेखा करने के वास्ते शब्द) असंख (भी) कहते हैं, (उनके) सिर पे भार ही होता है (भाव, वो भी भूल करते हैं, ‘असंख’ शब्द भी प्रयाप्त नहीं है)।```

*अखरी नामु अखरी सालाह ॥ अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥*
*अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥ अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥*
*जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥ जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥*

अखरी = अक्षरों के द्वारा। सालाह = सिफति, स्तुति। गुण गाह = गुणों के गाहने वाले, गुणों के ग्राहक, गुणों के वाकफ़। बाणि लिखणु = वाणी का लिखना। बाणि = वाणी, बोली। बाणि बोलणु = वाणी (बोली) का बोलना। अखरा सिरि = अक्षरों के द्वारा ही। संजोगु = भाग्यों का लेख। वखाणि = बयान किया जा सकता है, बताया जा सकता है। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। एहि = संजोग के ये अक्षर। तिसु सिरि = उस अकाल-पुरख के माथे पे। नाहि = (कोई लेख) नहीं हैं। जिव = जिस तरह। फ़रमाए = अकाल-पुरख हुक्म करता है। तिव तिव = उसी तरह। पाहि = (जीव) पा लेते हैं, भोगते हैं।

```(हलांकि, अकाल-पुरख की कुदरत का लेखा करने के लिए शब्द ‘असंख’ तो कहां रहा, कोई भी शब्द काफी नहीं है, पर) अकाल-पुरख का नाम भी अक्षरों द्वारा ही (लिया जा सकता है), उसकी स्तुति भी अक्षरों द्वारा ही की जा सकती है। अकाल-पुरख का ज्ञान भी अक्षरों द्वारा ही (विचारा जा सकता है)। अक्षरों के द्वारा ही असके गीत और गुणों से वाकिफ हो सकते हैं। बोली का लिखना और बोलना भी अक्षरों के द्वारा ही संभव है। (इस लिए शब्द ‘असंख’ इस्तेमाल किया गया है, वैसे) जिस अकाल-पुरख ने (जीवों के संजोग के) ये अक्षर लिखे हैं, उसके स्वयं के सिर पर कोई लेख नहीं है (भाव, कोई मनुष्य उस अकाल-पुरख का लेखा नहीं कर सकता)। जैसे जैसे वह अकाल-पुरख हुक्म करता है वैसे ही (जीव अपने संजोग) भोगते हैं।```

*जेता कीता तेता नाउ ॥ विणु नावै नाही को थाउ ॥*

जेता = जितना। कीता = पैदा किया हुआ संसार। जेता कीता = यह सारा संसार जो अकाल-पुरख ने पैदा किया है। तेता = वह सारा, उतना ही। नाउ = नाम, रूप, सरूप।

```ये सारा संसार, जो अकाल-पुरख ने बनाया है, ये उसका स्वरूप है (‘इह विसु संसारु तुम देखदे, इहु हरि का रूपु है, हरि रूपु नदरी आइआ’)। कोई भी जगह अकाल-पुरख के स्वरूप से खाली नहीं है, (भाव, जो भी जगह या पदार्थ देखें वही अकाल-पुरख का स्वरूप दिखाई देता है, सृष्टि का जर्रा-जर्रा ईश्वर का ही स्वरूप है)।```

*कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥*
*जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥*

```मेरी क्या ताकत है कि मैं कुदरत का विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो तेरे ऊपर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ। (भाव, मेरी हस्ती तो बहुत तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदैव स्थिर रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है, (भाव, तेरी रज़ा में रहना ही हम जीवों के लाभदायक है)।19।```

*भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥ पाणी धोतै उतरसु खेह ॥*

भरीऐ = अगर भर जाए, यदि गंदा हो जाए, अगर मैला हो जाए। तनु = शरीर। देह = शरीर। पाणी धोते = पानी से धोने से। उतरसु = उतर जाती है। खेह = मिट्टी, धूल, मैल।

```अगर हाथ या पैर या शरीर मैला हो जाए, तो पानी से धोने से वह मैल उतर जाती है।```

*मूत पलीती कपड़ु होइ ॥ दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥*

पलीती = गंदे। मूत पलीती = मूत्र से गंदे हुए। कपड़ = कपड़ा। दे साबूणु = साबुन लगा के। लईऐ = लगाते हैं। ओह = वह गंदा हुआ कपड़ा। लईऐ धोइ = धो लेते हैं।

```अगर (कोई) कपड़ा मूत्र से गंदा हो जाए, तो साबुन लगा के उसको धो लेते हैं।```

*भरीऐ मति पापा कै संगि ॥ ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥*

भरीऐ = अगर भर जाए, यदि मलीन हो जाए। मति = बुद्धि। पापा कै संगि = पापों से। ओह = वह पाप। धोपै = धुलता है, धोया जा सकता है। रंगि = प्यार से। नावै कै रंगि = अकाल-पुरख के नाम के प्रेम से।

```(पर) यदि (मनुष्य की) बुद्धि पापों से मलीन हो जाए, तो वह पाप अकाल-पुरख के नाम में प्यार करने से ही धोया जा सकता है।```

*पुंनी पापी आखणु नाहि ॥ करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥*
*आपे बीजि आपे ही खाहु ॥ नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥*

आखणु = नाम, वचन। नाहि = नहीं है। करि करि करणा = (अपने-अपने) कर्म करके, जैसे जैसे कर्म करोगे। लिखि = लिख के (वैसा ही लेख) लिख के, (वैसे ही संस्कारों के) लेख, (उसी तरह के संस्कार) अपने मन में अंकुरित करके। लै जाहु = (अपने साथ) ले जाओगे, अपने मन में परो लोगे। आपे = स्वयं ही। बीजि = बीज के। हुकमी = अकाल-पुरख के हुक्म में। आवहु जाहु = आओगे जाओगे, जन्म मरण में पड़े रहोगे।

```हे नानक! ‘पुनी’ या ‘पापी’ निरे नाम नहीं हैं (भाव, निरे कहने की बातें नहीं है, सच-मुच ही) जिस तरह के कर्म तू करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर अंकुरित करके साथ ले कर अंकुरित करके ले कर जाएगा। जो कुछ तू खुद बीजेगा, उसका फल स्वयं ही खाएगा। (अपने बीजे मुताबिक) अकाल पुरख के हुक्म में जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहेगा।20।```

*तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥ जे को पावै तिल का मानु ॥*

जे को पावै = यदि कोई मनुष्य प्राप्त करे, अगर किसी मनुष्य को मिल भी जाए, तो। तिल का = तिल मात्र, रति मात्र। मानु = आदर, बड़प्पन। दतु = दिया हुआ।

```तीर्तों, यात्राएं, तपों की साधना, (जीवों पे) दया करनी, दिया हुआ दान- (इन कर्मों के बदले) अगर किसी मनुष्य को कोई आदर-सत्कार मिल भी जाए, तो वह नाम मात्र ही है।```

*सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥ अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥*

सुणिआ = (जिस मनुष्य ने) अकाल पुरख का नाम सुन लिया है। मंनिआ = (जिसका मन उस नाम को सुन के) मान गया है, पतीज गया है। मनि = मन में। भाउ कीता = (जिसने) प्रेम किया है। अंतरगति = अंदर की। तीरथि = तीर्थ पे। अंतरगति तीरथि = अंदर के तीर्थ में। मलि = मलमल के अच्छी तरह। नाउ = स्नान (किया है)।

```(पर जिस मनुष्य ने अकाल-पुरख के नाम में) तवज्जो जोड़ी है, (जिस का मन नाम में) पतीज गया है, (और जिसने अपने मन) में (अकाल-पुरख का) प्यार पैदा किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने भीतर के तीर्थ में मलमल के स्नान कर लिया है (भाव, उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल-पुरख में जुड़ के अच्छी तरह अपने मन की मैल उतार ली है)।```

*सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥ विणु गुण कीते भगति न होइ ॥*
*सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥ सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥*

सभि = सारे। मै नाही कोइ = मैं कोई नहीं हूँ, मेरा अपना कोई (गुण) नहीं है। विणु गुणु कीते = गुण पैदा किये बिना, अगर तू गुण पैदा ना करे, अगर तू अपने गुण मेरे में पैदा ना करे। न होइ = नहीं हो सकती। सुअसति = जै हो तेरी, तू सदा अटल रहे (भाव, मैं तेरा ही आसरा लेता हूँ)। बरमाउ = ब्रह्मा। सति = सदा स्थिर। सुहाणु = सुंदर, सोहना, सुबहान। मनि चाउ = मन में चाव/खिड़ाव।

```(हे अकाल-पुरख!) अगर तू (स्वयं खुद) गुण (मेरे में) पैदा ना करें तो मुझसे तेरी भक्ति नहीं हो सकती। मेरी कोई बिसात नहीं है (कि मैं तेरे गुण गा सकूँ)। ये सब तेरी ही महानता है। (हे निरंकार!) तेरी सदा जै हो! तू स्वयं ही माया है। तू स्वयं ही वाणी है, तू सवयं ही ब्रह्मा है। (भाव, इस सृष्टि को बनाने वाली माया, वाणी या ब्रह्मा तुझसे अलग हस्ती वाले नहीं हैं, जो लोगों ने माने हुए हैं), तू सदा स्थिर हैं, सुंदर है, तेरा मन हमेशा प्रसन्नता से भरा हुआ है (तू ही जगत को रचने वाला है, तुम्ही को पता है कि इसे तुमने कब बनाया)।```

*कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥*
*कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥*

वेला = समय। वखतु = समय, वेला।
थिति वार = चंद्रमां की चाल से थितियां/तिथियां गिनी जाती हैं, जैसे = एकम, दूज, तीज आदिक और सूर्य से दिन रात व वार, सोम मंगल आदिक। कवणि सि रुती = कौन सी वह ऋतुएं हैं। माह = महीना। कवणु = कौन सा। जितु = जिस में, जिस समय। होआ = अस्तित्व में आया, पैदा हुआ, बना। आकारु = ये दिखने वाला संसार।

```वह कौन सा वक्त व समय था, कौन सी तिथि थी, कौन सा दिन था, कौन सी ऋतुऐं थीं और वह कौन सा महीना था, जब ये संसार बना था?```

*वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥*
*वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥*

वेल = समय। पाइआ = पाई, ढूँढी। वेल न पाईआ = समय ना मिला।
पंडती = पण्डितों ने। जि = नहीं तो। होवै = होता, बना होता। लेखु = मज़मून। लेखु पुराणु = पुराणु रूप लेख, इस लेख वाला पुराण (भाव, जैसे और कई पुराण बने हैं, इस लेख का भी एक पुराण बना होता)। वखतु = समय, जब जगत बना। न पाइओ = नहीं मिला। कादीआं = काजियों ने। जि = नहीं तो। लिखनि = (काज़ी) लिख देते। लेखु कुराणु = कुरान जैसा लेख (भाव, जैसे काज़ियों ने मुहम्मद साहिब की उच्चारित आयतें एकत्र करके कुरान लिख दी थीं, वैसे ही वे संसार के बनने का समय का लेख भी लिख देते)।

```(कब ये संसार बना?) उस समय का पण्डितों को भी पता ना लगा, नहीं तो (इस मसले पे भी) एक पुराण लिखा होता। उस समय के काज़ियों को भी ख़बर ना लगी वर्ना वे भी लिख देते जैसे उन्होंने (आयतें इकट्ठी करके) कुरान (लिखी थी)।```

*थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥*
*जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥*

जा करता = जो कर्तार। सिरठी कउ = जगत को। साजै = पैदा करता है, बनाता है। आपे सोई = वह खुद ही।

```(जब जगत बना था तब) कौन सी तिथि थी, (कौन सा) दिन वार था, ये बात कोई जोगी भी नहीं जानता। कोई मनुष्य नहीं (बता सकता) कि तब कौन सी ऋतु थी और कौन सा महीना था। जो निर्माता इस जगत को पैदा करता है, वह स्वयं ही जानता है (कि जगत कब रचा)।```