*Guruvaani - 30*

 

*गुरमुखा के मुख उजले गुर सबदी बीचारि ॥ हलति पलति सुखु पाइदे जपि जपि रिदै मुरारि ॥ घर ही विचि महलु पाइआ गुर सबदी वीचारि ॥२॥*

बीचारि = विचार करके। हलति = इस लोक में, अत्र। पलति = पर लोक में परत्र। मुरारि = (मुर+अरि) परमात्मा। महल = टिकाना।2।

```जो लोग गुरु के सन्मुख रहते हैं गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के गुणों को) विचार के (वह) सदा आजाद रहते हैं। वह अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के लोक परलोक में सुख भोगते हैं। गुरु के शब्द की इनायत से परमात्मा के नाम को याद करके उन्होंने अपने हृदय में परमात्मा का निवास स्थान ढूंढ लिया होता है।2।```

*सतगुर ते जो मुह फेरहि मथे तिन काले ॥ अनदिनु दुख कमावदे नित जोहे जम जाले ॥ सुपनै सुखु न देखनी बहु चिंता परजाले ॥३॥*

ते = से, द्वारा। फेरहि = घूमते हैं। तिन = उनके। जोहे = ताक में रहते है। जम जाले = जम जाल, जम के जाल ने। देखनी = देखते। परजालै = अच्छी तरह जलती है।3।

```जो मनुष्य गुरु से बेमुख होते हैं उनके माथे भ्रष्ट हो जाते हैं। (उन्हें अपने अंदर से फिटकार ही पड़ती रहती है)। वह सदा वही करतूतें करते हैं जिनका फल दुख होता है। वह सदा जम के जाल में जम की ताक में रहते हैं। कभी सपने में भी उन्हें सुख नहीं मिलता। बहुत सारी चिंताएं उन्हें जलाती रहती हैं।3।```

*सभना का दाता एकु है आपे बखस करेइ ॥ कहणा किछू न जावई जिसु भावै तिसु देइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ आपे जाणै सोइ ॥४॥९॥४२॥*

बखस = बख्शिश। करेइ = करता है। जावई = जाते हैं। सोइ = वह प्रभु ही।4।

```पर कुछ कहा नहीं जा सकता (कि मनमुख क्यूँ नाम चेते नहीं करता और गुरमुख क्यूँ स्मरण करता है?) जिस पर वह प्रसंन्न होता है उसको नाम की दात देता है। वह परमात्मा सभ जीवों को दातें देने वाला है, वह स्वयं ही बख्शिश करता है। वह स्वयं ही (हरेक जीव के दिल की) जानता है। हे नानक! (उसकी मेहर से) गुरु की शरण पड़ने से उससे मिलाप होता है।4।9।42।```

*सिरीरागु महला ३ ॥ सचा साहिबु सेवीऐ सचु वडिआई देइ ॥ गुर परसादी मनि वसै हउमै दूरि करेइ ॥ इहु मनु धावतु ता रहै जा आपे नदरि करेइ ॥१॥*

सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सेवीऐ = स्मरणा चाहिए। सचु = सदा स्थिर प्रभु। देइ = देता है। मनि = मन में। करेइ = करता है। धावतु = दौड़ता है, भटकता है, माया के पीछे दौड़ता है। ता = तब ही। रहै = टिकता है।1।

```(हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाले मालिक प्रभु को स्मरणा चाहिए (जो स्मरण करता है उसे) सदा स्थिर प्रभु आदर देता है। गुरु की मेहर से जिसके मन में प्रभु बसता है वह अपने अंदर अहंकार दूर कर लेता है। (पर किसी के बस की बात नहीं। माया बड़ी मोहनी है) जब प्रभु खुद ही मेहर की निगाह करता है तभी ये मन (माया के पीछे) दौड़ने से हटता है।1।```

*भाई रे गुरमुखि हरि नामु धिआइ ॥ नामु निधानु सद मनि वसै महली पावै थाउ ॥१॥ रहाउ॥*

सद = सदा। महली = प्रभु के महल में।1। रहाउ।

```हे भाई! गुरु की शरण में पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण कर। जिस मनुष्य के मन में नाम खजाना सदा बसता है वह परमात्मा के चरणों में ठिकाना ढूंढ लेता है।1। रहाउ।```

*मनमुख मनु तनु अंधु है तिस नउ ठउर न ठाउ ॥ बहु जोनी भउदा फिरै जिउ सुंञैं घरि काउ ॥ गुरमती घटि चानणा सबदि मिलै हरि नाउ ॥२॥*

अंधु = अंधा। नउ = को। घरि = घर में। घटि = हृदय में।2।

```अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का मन (माया के मोह में) अंधा हो जाता है। शरीर भी (भाव, हरेक ज्ञान-इंद्रिय भी) अंधा हो जाता है। उसे (आत्मिक शान्ति के लिए) कोई जगह नहीं मिलती। (माया के मोह में फंस के) वह अनेक जोनियों में भटकता है (कहीं भी उसे आत्मिक शांति नहीं मिलती) जैसे किसी खाली घर में कौआ जाता है (तो वहां उसे मिलता कुछ नहीं)। गुरु की मति पर चलने से हृदय में प्रकाश (हो जाता है) (भाव, सही जीवन की समझ आ जाती है), गुरु-शब्द में जुड़ने से परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है।2।```

*त्रै गुण बिखिआ अंधु है माइआ मोह गुबार ॥ लोभी अन कउ सेवदे पड़ि वेदा करै पूकार ॥ बिखिआ अंदरि पचि मुए ना उरवारु न पारु ॥३॥*

त्रैगुण बिखिआ = (रजो तमो व सतो) तीन गुणों वाली माया। गुबार = अंधेरा। अन कउ = किसी और को। पढ़ि = पढ़ के। पचि मुए = खुआर हो के आत्मिक मौत मरते हैं।3।

```त्रैगुणी माया के प्रभाव में जगत अंधा हो रहा है, माया के मोह का अंधेरा (चारों ओर पसरा हुआ है)। लोभ ग्रसे जीव (वैसे तो) वेदों को पढ़ के (उनके उपदेशों का) ढंढोरा देते हैं, (पर अंदर से प्रभु को विसार के) औरों की (भाव, माया की) सेवा करते हैं। माया के मोह में खुआर हो हो के आत्मिक मौत मर जाते हैं। (माया के मोह के घोर अंधकार में उनको) ना इस पार का कुछ दिखता है ना ही अगले पार का।3।```

*माइआ मोहि विसारिआ जगत पिता प्रतिपालि ॥ बाझहु गुरू अचेतु है सभ बधी जमकालि ॥ नानक गुरमति उबरे सचा नामु समालि ॥४॥१०॥४३॥*

मेहि = मोह में। अचेतु = गाफिल। सभ = सारी लुकाई। जम कालि = यम काल ने। उबरे = बचते हैं। समालि = संभाल के, याद करके।4।

```माया के मोह में फंस के जीवों ने जगत-पिता पालणहार प्रभु को बिसार दिया है। गुरु (की शरण) के बगैर जीव गाफिल हो रहा है। (परमात्मा से बिछुड़ी हुई) सारी सृष्टि को आत्मिक मौत ने (अपने बंधनों में) जकड़ा हुआ है। हे नानक! गुरु की शिक्षा की इनायत से सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम हृदय में बसा के ही जीव (आत्मिक मौत के बंधनों से) बच सकते हैं।4।10।43।```

*सिरीरागु महला ३ ॥ त्रै गुण माइआ मोहु है गुरमुखि चउथा पदु पाइ ॥ करि किरपा मेलाइअनु हरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ पोतै जिन कै पुंनु है तिन सतसंगति मेलाइ ॥१॥*

गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। चउथा पद = चौथा दर्जा, वह आत्मिक अवस्था जहां माया के तीन गुण जोर नहीं डाल सकते। मेलाइअनु = उस (प्रभु) ने मिलाए हैं। मनि = मन में। पोतै = पोतै में, खजाने में। पुंनु = नेकी।1।

```(जगत में) त्रिगुणी माया का मोह (पसर रहा) है जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह उस आत्मिक दर्जे को हासिल कर लेता है जहां माया के तीनों गुणों का जोर नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने मेहर करके जिस मनुष्यों को अपने चरणों में मिलाया है उनके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। जिनके भाग्य में नेकी है, परमात्मा उनको साधु संगति में मिलता है।1।```

*भाई रे गुरमति साचिरहाउ ॥ साचो साचु कमावणा साचै सबदि मिलाउ ॥१॥ रहाउ॥*

साचि = सदा स्थिर प्रभु में। रहाउ = टिके रहो। साचो साचु = सच ही सच, सदा स्थिर प्रभु (का स्मरण) ही। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में। मिलाउ = मिले रहो।1। रहाउ।

```हे भाई! गुरु की मति ले के सदा स्थिर प्रभु में टिके रहो। सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की ही कमाई करो, सदा स्थिर प्रभु की महिमा में जुड़े रहो।1। रहाउ।```

*जिनी नामु पछाणिआ तिन विटहु बलि जाउ ॥ आपु छोडि चरणी लगा चला तिन कै भाइ ॥ लाहा हरि हरि नामु मिलै सहजे नामि समाइ ॥२॥*

नामु पछाणिआ = प्रभु के नाम की कद्र पहचानी है। विटहुं = से। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूं। आपु = स्वै भाव। लगा = लगूं, मैं लगता हूँ। भाइ = प्रेम में, रजा में। लाहा = लाभ। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता से। समाइ = लीन हो जाता है।2।

```मैं उन गुरमुखों के सदके जाता हूँ, जिन्होंने परमात्मा के नाम की कद्र समझी है। स्वै-भाव त्याग के मैं उनके चरणों में नत्मस्तक हूँ, मैं उनके अनुसार हो के चलता हूँ। (जो मनुष्य नाम जपने वालों की शरण लेता है वह) आत्मिक अडोलता से परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है, उसको प्रभु का नाम रूपी लाभ हासिल हो जाता है।2।```

*बिनु गुर महलु न पाईऐ नामु न परापति होइ ॥ ऐसा सतगुरु लोड़ि लहु जिदू पाईऐ सचु सोइ ॥ असुर संघारै सुखि वसै जो तिसु भावै सु होइ ॥३॥*

महलु = परमात्मा का दर। लोड़ि लहु = ढूंढ लो। जिदू = जिससे। सचु सोइ = वह सदा स्थिर प्रभु। असुर = कामादिक दैंतों को। संघारै = संघार देता है।3।

```गुरु की शरण के बिना परमात्मा का दर नहीं मिलता, प्रभु का नाम नहीं मिलता (हे भाई! तू भी) ऐसा गुरु ढूंढ ले, जिससे वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा मिल जाए। (जो मनुष्य गुरु के द्वारा परमात्मा को ढूंढ लेता है) वह कामादिक दैंतों को मार लेता है। वह आत्मिक आनन्द में टिका रहता है। (उसको निष्चय हो जाता है कि) जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वही होता है।3।```

*जेहा सतगुरु करि जाणिआ तेहो जेहा सुखु होइ ॥ एहु सहसा मूले नाही भाउ लाए जनु कोइ ॥ नानक एक जोति दुइ मूरती सबदि मिलावा होइ ॥४॥११॥४४॥*

सहसा = शक। मूले = बिल्कूल। भाउ = पिआर। जनु कोइ = कोई भी मनुष्य। सबदि = शब्द द्वारा।4।

```कोई भी मनुष्य (गुरु चरणों में) श्रद्धा बना के देख ले, सत्गुरू को जैसा भी जिस किसी ने समझा है उसे वैसा आत्मिक आनन्द प्राप्त हुआ है। इस में रत्ती भर भी शक नहीं है (क्योंकि) हे नानक! (जिस सिख का गुरु के) शब्द द्वारा मिलाप हो जाता है, (उस सिख और गुरु की) ज्योति एक हो जाती है, शरीर चाहे दो होते हैं।4।11।44।```