*सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ॥*
*सुणिऐ अठसठि का इसनानु ॥*
*सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु ॥*
*सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ॥*
*नानक भगता सदा विगासु ॥*
*सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥१०॥*
सतु संतोख = दान और संतोख।
अठसठि = अड़सठ तीर्थ। पड़ि पड़ि = विद्या पढ़ के। पावहि = पाते हैं। सहजि = सहज अवस्था में। सहज = (सह+ज, सह = साथ, ज = जन्मा) पैदा हुआ, वह स्वभाव जो शुद्ध-स्वरूप आत्मा के साथ जन्मा है, शुद्ध-स्वरूप आत्मा का अपना असली धर्म, माया के तीनों गुणों को पार करके ऊपर की अवस्था, तुरिया अवस्था, शांति, अडोलता। धिआनु = ध्यान, तवज्जो। गिआनु = सारे जगत को प्रभु पिता का एक परिवार समझने की सूझ, प्रमात्मा से जान-पहिचान।
```हे नानक! (अकाल पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदैव आनन्द बना रहता है। (क्योंकि) अकाल पुरख की महिमा सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। रब के नाम से जुड़ने से (हृदय में) दान (देने का स्वभाव) संतोष व प्रकाश प्रकट होता है, मानों अड़सठ तीर्तों का स्नान (ही) हो जाता है (अर्थात, अड़सठ तीर्तों का स्नान नाम जपने में ही आ जाते हैं)। जो आदर (मनुष्य विद्या) पढ़ के प्राप्त करते हैं वह भक्त जनों को अकाल-पुरख के नाम में जुड़ के ही मिल जाता है। नाम सुनने के सदका अडोलता में चित्त की तवज्जो टिक जाती है।10।```
*सुणिऐ सरा गुणा के गाह ॥ सुणिऐ सेख पीर पातिसाह ॥*
*सुणिऐ अंधे पावहि राहु ॥ सुणिऐ हाथ होवै असगाहु ॥*
*नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥११॥*
सरा गुणा के = गुणों के सरोवरों के, बेअंत गुणों के। गाह = सूझ वाले, वाकफियत वाले। राहु = रास्ता। असगाहु = गहरा समुंदर, संसार।
हाथ होवै = हाथ हो जाती है, गहराई का पता चल जाता है, असलिअत समझ आ जाती है।11।
```हे नानक! (अकाल पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदा प्रसन्नता बनी रहती है, (क्योंकि) अकाल-पुरख का नाम सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। अकाल-पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने से (साधरण मनुष्य) बेअंत गुणों की सूझ वाले हो जाते हैं, शेख, पीर व बादशाह की पदवी पा लेते हैं। ये नाम सुनने की ही बरकत है कि अंधे और ज्ञानहीन मनुष्य भी (अकाल-पुरख को मिलने का) रास्ता ढूँढ लेते हैं। अकाल-पुरख के नाम में जुड़नेके सदके इस संसार समुन्द्र की हकीकत की समझ आ जाती है।11।```
*मंने की गति कही न जाइ ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥*
*कागदि कलम न लिखणहारु ॥ मंने का बहि करनि वीचारु ॥*
*ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१२॥*
मंने की = मानने वाले की, यकीन कर लेने वाले की, पतीजे हुए की। गति = हालत, अवस्था। कहै = बताए, बयान करे। मंने का वीचारु = श्रद्धा धारण करने वाले की महानता का विचार। बहि करन = बैठ के करते हैं। ऐसा = ऐसा, इतना ऊँचा। होइ = है। मंनि = श्रद्धा धारण करके, लगन लगा के। मंनि जाणै = श्रद्धा रख के देखो, मान के देखो। मनि = मन में। कागदि = कागज़ पे। कलम = कलम से।
```उस मनुष्य की (ऊँची) आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती, जिसने (अकाल-पुरख के नाम को) मान लिया है, (भाव, जिसकी लगन नाम में लग गई है)। यदि कोई मनुष्य वर्णन करे भी, तो वह पीछे पछताता है (कि मैंने होछा प्रयत्न किया है)। (मनुष्य) मिल के नाम में पतीजी हुई आत्मिक अवस्था का अंदाजा लगाते हैं, पर कागज पर कलम से कोई मनुष्य लिखने में समर्थ नहीं है। अकाल-पुरख का नाम बहुत (ऊँचा) है और माया के प्रभाव से परे है, (इसमें जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, पर ये बात तभी समझ में आतीं है) जब कोई मनुष्य अपने अंदर लगन लगा के झाँके।12।```
*मंनै सुरति होवै मनि बुधि ॥ मंनै सगल भवण की सुधि ॥*
*मंनै मुहि चोटा ना खाइ ॥ मंनै जम कै साथि न जाइ ॥*
*ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१३॥*
मंनै = मानने से, यदि मान लें, अगर मन पतीज जाए, यदि प्रभु के नाम में लगन लग जाए। सुरति होवै = (ऊँची) सोच हो जाती है। मनि = मन में। बुधि = जागृति। सुधि = खबर, सोझी, सूझ। मुहि = मुँह पे। चोटा = चोटें। जम कै साथि = यमदूतों के साथ।13।
```यदि मनुष्य के मन में प्रभु के नाम की लगन लग जाए, तो उसकी अक़्ल ऊँची हो जाती है, उसके मन में जागृति आ जाती है (भाव, माया में सोया मनुष्य जाग जाता है) सभी भवनों/लोकों की उसको समझ आ जाती है (कि हर जगह ईश्वर व्यापक है)। वह मनुष्य (संसार के विकारों की) चोटें मुँह पे नहीं खाता (अर्थात, सांसारिक विकार उस पर दबाव नहीं डाल सकते) और यमों से उसका वास्ता नहीं पड़ता (भाव, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में से बच जाता है)। अकाल-पुरख का नाम जो माया के प्रभाव से परे है इतना (ऊँचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।13।```
*मंनै मारगि ठाक न पाइ ॥ मंनै पति सिउ परगटु जाइ ॥*
*मंनै मगु न चलै पंथु ॥ मंनै धरम सेती सनबंधु ॥*
*ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१४॥*
मारगि = मार्ग में, राह में। ठाक = रोक। ठाक न पाइ = रुकावट नहीं पड़ती। पति सिउ = इज्जत के साथ। परगटु = प्रसिद्ध हो के।
सेती = साथ। सनबंधु = साक, रिश्ता, मेल।
```जिस मनुष्य का मन नाम में पतीज जाए तो जिंदगी के सफर में विकारों की कोई रोक नहीं पड़ती, वह (संसार से) शोभा कमा के इज्जत के साथ जाता है। उस मनुष्य का धर्म के साथ (सीधा) जोड़ बन जाता है, वह फिर (दुनिया के विभिन्न मजहबों के बताए) रास्तों पे नहीं चलता (भाव, उसके अंदर ये द्वंद नहीं रहता कि ये रास्ता ठीक है और ये गलत है)। अकाल पुरख का नाम जो माया के प्रभाव से परे है इतना (ऊंचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है) पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।14।```
*मंनै पावहि मोखु दुआरु ॥ मंनै परवारै साधारु ॥*
*मंनै तरै तारे गुरु सिख ॥ मंनै नानक भवहि न भिख ॥*
*ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१५॥*
पावहि = प्राप्त कर लेते हैं, ढूंढ लेते हैं। मोखु दुआरु = मुक्ति का द्वार, ‘झूठ’ से मुक्ति पाने का राह। परवारै = परिवार को। साधारु = आधार सहित करता है, (अकाल-पुरख की) टेक दृढ़ कराता है। तरै गुरु = गुरु खुद तैरता है। सिख = सिखों को।
तारे सिख = सिखों को तारता है। भवहि न = दर-ब-दर नहीं भटकते, जरूरतों की खातिर दर-दर नहीं रुलते फिरते, हरेक की मुथाजगी नहीं करते फिरते।
```यदि मन में प्रभु के नाम की लगन लग जाए तो (मनुष्य) ‘झूठ’ से छुटकारा पाने का रास्ता ढूँढ लेता है। (ऐसा मनुष्य) अपने परिवार को भी (अकाल-पुरख की) टेक दृढ़ करवाता है। नाम में मन पतीजने से ही, सत्गुरू (भी स्वयं संसार सागर से) पार लांघ जाता है और सिखों को पार कर देता है। नाम में मन जुड़ने से ही, हे नानक! मनुष्य हरेक की मुथाजगी नहीं करते फिरते। अकाल-पुरख का नाम, जो माया के प्रभाव से परे है, इतना (ऊंचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च जीवन वाला हो जाता है पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।15।```
*पंच परवाण पंच परधानु ॥ पंचे पावहि दरगहि मानु ॥*
*पंचे सोहहि दरि राजानु ॥ पंचा का गुरु एकु धिआनु ॥*
पंच = वे मनुष्य जिन्होंने नाम संना है और माना है, वो मनुष्य जिनकी तवज्जो नाम में जुड़ी है और जिनके अंदर प्रतीत आ गई है।
परवाण = स्वीकार किया हुआ, स्वीकृत। परधान = ने, नायक। पंचे = पंच ही, संतजन ही। दरगह = अकाल-पुरख के दरबार में। मान = आदर, सम्मान। सोहहि = शोभनीय हैं, सुहाने लगते हैं। दरि = दर से, दरबार में। गुरु एकु = केवल गुरु ही। धिआनु = तवज्जो का निशाना।
```जिस लोगों की तवज्जो नाम में जुड़ी रहती है और जिनके अंदर प्रभु के वास्ते लगन बन जाती है वही मनुष्य (यहां जगत में) मशहूर होते हैं और सभी के नायक होते हैं। अकाल-पुरख के दरबार में भी वही पंच जन मान सम्मान पाते हैं। राज-दरबारों में भी वह पंच जन ही शोभनीय हैं। इन पंच जनों की तवज्जो का निशाना केवल एक गुरु ही है (भाव, इनकी तवज्जो गुरु-शबद में ही रहती है, गुरु-शबद में जुड़े रहना ही इनका असल निशाना है)।```
*जे को कहै करै वीचारु ॥ करते कै करणै नाही सुमारु ॥*
कहै = बयान करे, कथन करे। वीचारु = कुदरत केलेखे का चिंतन/ विचार। करते के करणै = कर्तार की कुदरत का। सुमारु = हिसाब।
```(पर गुरु-शबद में जुड़े रहने का ये नतीजा नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभु की रची सृष्टि का अंत पा सके) अकाल-पुरख की कुदरत का कोई लेखा नहीं (भाव, अंत नहीं पाया जा सकता), चाहे कोई भी कहि के देखे या विचार कर ले (प्रमात्मा व उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य की जिंदगी का उद्देश्य हो ही नहीं सकता)।```
*धौलु धरमु दइआ का पूतु ॥ संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति ॥*
*जे को बुझै होवै सचिआरु ॥ धवलै उपरि केता भारु ॥*
*धरती होरु परै होरु होरु ॥ तिस ते भारु तलै कवणु जोरु ॥*
धौलु = बैल। दइआ का पूत = दया का पुत्र, धर्म दया से उत्पन्न होता है, भाव जिस हृदय में दया है वहाँ धर्म प्रफुल्लित होता है। संतोखु = संतोष को। थापि रखिआ = टिका के रखा, अस्तित्व में लाए हैं, पैदा किया है। जिनि = जिस (धर्म) ने। धर्म = अकाल-पुरख का नियम। सूति = सूत्र में, मर्यादा में। बुझै = समझ ले। सचिआरु = सत्य का प्रकाश होने योग्य। केता भारु = बेअंत वजन। धरती होरु = धरती के नीचे और बैल। परै = उससे भी नीचे। तिस ते = उस बैल पे। तलै = उस बैल के नीचे। कवणु जोरु = कौन सा सहारा।
```(अकाल-पुरख का) धर्म रूपी अटल नियम ही बैल है (जो सृष्टि को कायम रख रहा है)। (ये धरम) दया का पुत्र है (भाव, अकाल-पुरख ने अपनी मेहर करके सृष्टि को टिकाए रखने के लिए ‘धरम’ रूप नियम बना दिया है)। इस धरम ने अपनी मर्यादा अनुसार संतोष को जन्म दिया है। यदि कोई मनुष्य (ऊपर दिए हुए विचारों को) समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर अकाल-पुरख का प्रकाश हो जाए। (वरना, सोच के तो देखो कि) बैल पे धरती का कितना बेअंत भार है (वह बेचारा इतने भार को कैसे उठा सकता है?), (दूसरी बात ये भी है कि अगर धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिए नीचे और धरती हुई, उस) धरती के और बैल, उसके नीचे (धरती के नीचे) और बैल, फिर और बैल, (इसी तरह आखिरी) बैल के भार का सहारा बनने के लिए और कौन सा आसरा होगा?```
*जीअ जाति रंगा के नाव ॥ सभना लिखिआ वुड़ी कलाम ॥*
*एहु लेखा लिखि जाणै कोइ ॥ लेखा लिखिआ केता होइ ॥*
*केता ताणु सुआलिहु रूपु ॥ केती दाति जाणै कौणु कूतु ॥*
*कीता पसाउ एको कवाउ ॥ तिस ते होए लख दरीआउ ॥*
जीअ = जीव जन्तु। के नाव = कई नामों के। वुड़ी = बहती, चलती। कलाम = कलम। वुड़ी कलाम = चलती कलम से, भाव, कलम को रोके बिना इक तार। लिखि जाणे = लिखना जानता है, लिखने की समझ है। कोइ = कोई एक आध। लेखा लिखिआ = लिखा हुआ लेखा, अगर ये लेखा लिखा जाए। केता होइ = कितना बड़ा हो जाए, बेअंत हो जाए। पसाउ = पसारा, संसार। कवाउ = वचन, हुक्म। तिस ते = उस हुक्म से। होए = बन गए। लख दरीआउ = लाखों दरिया लाखों नदीयां। सुआलिहु = सुंदर। कूतु = नाप, अंदाजा।
```(सृष्टि में) कई जातियों के, कई किस्मों के और कई नामों के जीव हैं। इन सब का एक तार चलती कलम से (अकाल-पुरख की कुदरत का) लेखा लिखा गया है। (पर) कोई विरला मनुष्य ही ये लेखा लिखना जानता है। (भाव, परमात्मा की कुदरत का अंत कोई भी जीव नहीं पा सकता)। (यदि) लेखा लिख (भी लिया जाए, तो ये अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा) कितना बड़ा हो जाए। अकाल-पुरख का बेअंत बल है, बेअंत सुंदर रूप है, बेअंत उसकी दात है; इसका कौन अंदाजा लगा सकता है? (अकाल-पुरख ने) अपने हुक्म के अनुसार ही सारा संसार बना दिया, उसके हुक्म से ही (जिंदगी के) लाखों दरिया बन गए।```
*कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥*
*जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१६॥*
कुदरति = ताकत, स्मर्था। कवण = कौन सी। कुदरति कवण = कौन सी स्मर्था? कहा = मैं कहूँ। कहा वीचारु = मैं विचार कर सकूँ। वारिआ न जावा = सदके नहीं जा सकता (भाव, मेरी क्या बिसात है/ स्मर्था है)। साई कार = वही काम। सलामति = स्थिर, अटल। निरंकार = हे हरि!
```(सो) मेरी क्या ताकत है कि (करते की कुदरत की) विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के काबिल नहीं हूँ (अर्थात मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है जो आपको अच्छा लगता है वही काम भला है (भाव तेरी रज़ा में रहना ही ठीक है)।16।```
*असंख जप असंख भाउ ॥ असंख पूजा असंख तप ताउ ॥*
असंख = अनगिनत, बेअंत (जीव)। भाउ’ = प्यार। तप ताउ = तपों का तपना।
```(अकाल-पुरख की रचना में) अनगिनत जीव तप करते हैं, बेअंत जीव (औरों के साथ) प्यार (का बरताव) कर रहे हैं। कई जीव पूजा कर रहे हैं। और अनगिनत जीव तप साधना कर रहे हैं।```
*असंख गरंथ मुखि वेद पाठ ॥ असंख जोग मनि रहहि उदास ॥*
मुखि = मुंह से। गरंथ वेद पाठ = वेदों व और धार्मिक पुस्तकों के पाठ। जोग = योग साधना करने वाले। मनि = मन में। उदास रहहि = उपराम रहते हैं।
```बेअंत जीव वेदों व और धार्मिक पुस्तकोंके पाठ मुंह से कर रहे हैंयोग साधना करने वाले बेअंत मनुष्य अपने मन में (माया की ओर से) उपराम रहते हैं।```