*॥ जपु ॥*
आदि = आरम्भ से। सचु = अस्तित्व वाला। शब्द ‘सचु’ संस्कृत के ‘सत्य’ का प्राकृत है, जिसकी धातु ‘अस’ है। ‘अस’ का अर्थ है ‘होना’। जुगादि = युगों के आरम्भ से। है = अर्थात, इस समय भी है। नानक = हे नानक। होसी = होगा, रहेगा।१।
सोचै = स्वच्छता रखने से, पवित्रता कायम रखने से। सोचि = सुचि, पवित्रता, सुच। न होवई = नहीं हो सकती। सोची = मैं स्वच्छता रखूँ। चुपै = चुप कर रहने से। चुप = शांति, मन की चुप, मन का टिकाउ। लाइ रहा = मैं लगायी रखूँ। लिव तार = लगन की तार, लगन की डोर, एक तार समाधि।
भुख = त्रिष्णा, लालच। भुखिआ = त्रिष्णा के अधीन रहने से। न उतरी = दूर नहीं हो सकती। बंना = बांध लूँ, सम्भाल लूँ। पुरी = लोक, भवण। पुरीआ भार = सारे लोकों के भार। भार = पदार्तों के समूह। सहस = हजारों। सिआणपा = चतुराईयां। होहि = हों। इक = एक भी चतुराई।
किव = किस तरह। होईऐ = हो सकते हैं। कूड़ै पालि = झूठ की पाल, झूठ की दीवार, झूठ का पर्दा। सचिआरा = (सच आलय) सच का घर, सत्य के प्रकाश के योग्य। हुकमि = हुक्म में। रजाई = रजा वाला, अकाल पुरख। नालि = जीव के साथ ही, शुरू से ही जब से जगत बना है।1।
हुकमी = हुक्म में, अकाल-पुरख के हुक्म अनुसार। होवनि = होते हैं, अस्तित्व में आते हैं, बन जाते हैं। आकार = स्वरूप, शक्लें, शरीर। न कहिआ जाई = कथन नहीं किया जा सकता। जीअ = जीव जन्तु। हुकमि = हुक्म अनुसार। वडिआई = आदर, शोभा।
उतमु = श्रेष्ठ, बढ़िया। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। पाईअहि = प्राप्त होते हैं, भोगते हैं। इकना = कई मनुष्यों को। बखसीस = दात, बख्शिश। इकि = एक मनुष्य। भवाईअहि = भ्रमित होते हैं, जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं।
अंदरि = रब के हुक्म में। सभु को = हर एक जीव। बाहरि हुकम = हुक्म से बाहर। हकमै = हुक्म को। बुझै = समझ ले। हउमै कहै न = अहंकार भरे बोल नहीं बोलता, मैं मैं नहीं कहता, स्वार्थी नहीं बनता।
को = कोई मनुष्य। ताणु = बल, अकाल पुरख की ताकत। किसै = जिस किसी मनुष्य को। ताणु = सामर्थ्य। दाति = बख्शे हुए पदार्थ। नीसाणु = (कृपा का) निशान।
चार = सुंदर। विदिआ = विद्या द्वारा। विखमु = कठिन, मुष्किल। विचारु = ज्ञान।
साजि = पैदा करके, बना के। तनु = शरीर को। खेह = स्वाह, राख। जीअ = जीवात्मा। लै = ले के। देह = दे देता है।
```हे नानक! अकाल पुरख आरम्भ से ही अस्तित्व वाला है, युगों के आरम्भ से मौजूद है। इस समय भी मौजूद है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा।१।```
``` अगर में लाखों बार (भी) (स्नान आदि से शरीर की) स्वच्छता रखूँ, (तो भी इस तरह) स्वच्छता रखने से (मन की) स्वच्छता नहीं रहि सकती। यदि मैं (शरीर की) एक-तार समाधि लगाई रखूँ; (तो भी इस तरह) चुप कर के रहने से मन शांत नहीं हो सकता।```
``` यदि मैं सारे भवनों के पदार्तों के ढेर (भी) संभाल लूँ, तो भी त्रिष्णा के अधीन रहने से त्रिष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि, (मेरे में) हजारों व लाखों ही चतुराईयां हों, (तो भी उनमें से) एक भी चतुराई साथ नहीं देती।```
``` (तो फिर) अकाल पुरख के प्रकाश होने योग्य कैसे बन सकते हैं (और हमारे अंदर का) झूठ का पर्दा कैसे कैसे टूट सकता है? रजा के मालिक अकाल पुरख के हुक्म में चलना- (यही एक मात्र विधि है)। हे नानक! (ये विधि) आरम्भ से ही जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।1।```
``` अकाल पुरख के हुक्म के अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (पर ये) हुक्म कहा नहीं जा सकता कि कैसा है। ईश्वर के आदेश मुताबिक ही सारे जीव पैदा हो जाते हैं और आदेशानुसार ही (ईश्वर के दर पर) शोभा मिलती है।```
``` रब के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता) है, काई बुरा। उसके हुक्म में ही (अपने किए कर्मों के) लिखे अनुसार दुख व सुख भोगते हैं। हुक्म में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, और उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरण के चक्कर में फसे रहते हैं।```
``` हरेक जीव ईश्वर के हुक्म में ही है, कोई जीव हुक्म से बाहर नहीं हो सकता। हे नानक! अगर कोई मनुष्य अकाल पुरख के हुक्म को समझ ले तो फिर वो स्वार्थ भरी बातें नहीं करता (अर्थात, स्वार्थी जीवन छोड़ देता है)।2।```
``` जिस किसी मनुष्य की स्मर्था होती है, वह ईश्वर की ताकत को गाता है, (भाव, उसकी महिमा करता है और उसके उन कर्मों का कथन करता है जिनसे उनकी बड़ी ताकत प्रगट हो) कोई मनुष्य उसकी दातों को ही गाता है, (क्योंकि, इन दातों को वह ईश्वर की कृपा का) निशान समझता है।```
``` कोई मनुष्य ईश्वर के सुन्दर गुण और अच्छी बढ़ाईयों का वर्णन करता है। कोई मनुष्य विद्या के बल से अकाल पुरख के कठिन ज्ञान को गाता है (भाव, शास्त्र आदि विद्या द्वारा आत्मिक फिलासफीजैसे मुश्किल विषयों पर विचार करता है)।```
``` कोई मनुष्य ऐसे गाता है, ‘अकाल पुरख शरीर को बना के फिर राख कर देता है। कोई ऐसे गाता है, ‘हरि (शरीरों में से) जान निकाल के फिर (दूसरे शरीरों में) डाल देता है’।```
*आदि सचु जुगादि सचु ॥*
*है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥*
आदि = आरम्भ से। सचु = अस्तित्व वाला। शब्द ‘सचु’ संस्कृत के ‘सत्य’ का प्राकृत है, जिसकी धातु ‘अस’ है। ‘अस’ का अर्थ है ‘होना’। जुगादि = युगों के आरम्भ से। है = अर्थात, इस समय भी है। नानक = हे नानक। होसी = होगा, रहेगा।१।
```हे नानक! अकाल पुरख आरम्भ से ही अस्तित्व वाला है, युगों के आरम्भ से मौजूद है। इस समय भी मौजूद है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा।१।```
*सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥*
*चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥*
सोचै = स्वच्छता रखने से, पवित्रता कायम रखने से। सोचि = सुचि, पवित्रता, सुच। न होवई = नहीं हो सकती। सोची = मैं स्वच्छता रखूँ। चुपै = चुप कर रहने से। चुप = शांति, मन की चुप, मन का टिकाउ। लाइ रहा = मैं लगायी रखूँ। लिव तार = लगन की तार, लगन की डोर, एक तार समाधि।
```अगर में लाखों बार (भी) (स्नान आदि से शरीर की) स्वच्छता रखूँ, (तो भी इस तरह) स्वच्छता रखने से (मन की) स्वच्छता नहीं रहि सकती। यदि मैं (शरीर की) एक-तार समाधि लगाई रखूँ; (तो भी इस तरह) चुप कर के रहने से मन शांत नहीं हो सकता।```
*भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥*
*सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥*
भुख = त्रिष्णा, लालच। भुखिआ = त्रिष्णा के अधीन रहने से। न उतरी = दूर नहीं हो सकती। बंना = बांध लूँ, सम्भाल लूँ। पुरी = लोक, भवण। पुरीआ भार = सारे लोकों के भार। भार = पदार्तों के समूह। सहस = हजारों। सिआणपा = चतुराईयां। होहि = हों। इक = एक भी चतुराई।
```यदि मैं सारे भवनों के पदार्तों के ढेर (भी) संभाल लूँ, तो भी त्रिष्णा के अधीन रहने से त्रिष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि, (मेरे में) हजारों व लाखों ही चतुराईयां हों, (तो भी उनमें से) एक भी चतुराई साथ नहीं देती।```
*किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥*
*हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥*
किव = किस तरह। होईऐ = हो सकते हैं। कूड़ै पालि = झूठ की पाल, झूठ की दीवार, झूठ का पर्दा। सचिआरा = (सच आलय) सच का घर, सत्य के प्रकाश के योग्य। हुकमि = हुक्म में। रजाई = रजा वाला, अकाल पुरख। नालि = जीव के साथ ही, शुरू से ही जब से जगत बना है।1।
```(तो फिर) अकाल पुरख के प्रकाश होने योग्य कैसे बन सकते हैं (और हमारे अंदर का) झूठ का पर्दा कैसे कैसे टूट सकता है? रजा के मालिक अकाल पुरख के हुक्म में चलना- (यही एक मात्र विधि है)। हे नानक! (ये विधि) आरम्भ से ही जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।1।```
*हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई ॥*
*हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई ॥*
हुकमी = हुक्म में, अकाल-पुरख के हुक्म अनुसार। होवनि = होते हैं, अस्तित्व में आते हैं, बन जाते हैं। आकार = स्वरूप, शक्लें, शरीर। न कहिआ जाई = कथन नहीं किया जा सकता। जीअ = जीव जन्तु। हुकमि = हुक्म अनुसार। वडिआई = आदर, शोभा।
```अकाल पुरख के हुक्म के अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (पर ये) हुक्म कहा नहीं जा सकता कि कैसा है। ईश्वर के आदेश मुताबिक ही सारे जीव पैदा हो जाते हैं और आदेशानुसार ही (ईश्वर के दर पर) शोभा मिलती है।```
*हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥*
*इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि ॥*
उतमु = श्रेष्ठ, बढ़िया। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। पाईअहि = प्राप्त होते हैं, भोगते हैं। इकना = कई मनुष्यों को। बखसीस = दात, बख्शिश। इकि = एक मनुष्य। भवाईअहि = भ्रमित होते हैं, जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं।
```रब के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता) है, काई बुरा। उसके हुक्म में ही (अपने किए कर्मों के) लिखे अनुसार दुख व सुख भोगते हैं। हुक्म में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, और उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरण के चक्कर में फसे रहते हैं।```
*हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥*
*नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ॥२॥*
अंदरि = रब के हुक्म में। सभु को = हर एक जीव। बाहरि हुकम = हुक्म से बाहर। हकमै = हुक्म को। बुझै = समझ ले। हउमै कहै न = अहंकार भरे बोल नहीं बोलता, मैं मैं नहीं कहता, स्वार्थी नहीं बनता।
```हरेक जीव ईश्वर के हुक्म में ही है, कोई जीव हुक्म से बाहर नहीं हो सकता। हे नानक! अगर कोई मनुष्य अकाल पुरख के हुक्म को समझ ले तो फिर वो स्वार्थ भरी बातें नहीं करता (अर्थात, स्वार्थी जीवन छोड़ देता है)।2।```
*गावै को ताणु होवै किसै ताणु ॥*
*गावै को दाति जाणै नीसाणु ॥*
को = कोई मनुष्य। ताणु = बल, अकाल पुरख की ताकत। किसै = जिस किसी मनुष्य को। ताणु = सामर्थ्य। दाति = बख्शे हुए पदार्थ। नीसाणु = (कृपा का) निशान।
```जिस किसी मनुष्य की स्मर्था होती है, वह ईश्वर की ताकत को गाता है, (भाव, उसकी महिमा करता है और उसके उन कर्मों का कथन करता है जिनसे उनकी बड़ी ताकत प्रगट हो) कोई मनुष्य उसकी दातों को ही गाता है, (क्योंकि, इन दातों को वह ईश्वर की कृपा का) निशान समझता है।```
*गावै को गुण वडिआईआ चार ॥*
*गावै को विदिआ विखमु वीचारु ॥*
चार = सुंदर। विदिआ = विद्या द्वारा। विखमु = कठिन, मुष्किल। विचारु = ज्ञान।
```कोई मनुष्य ईश्वर के सुन्दर गुण और अच्छी बढ़ाईयों का वर्णन करता है। कोई मनुष्य विद्या के बल से अकाल पुरख के कठिन ज्ञान को गाता है (भाव, शास्त्र आदि विद्या द्वारा आत्मिक फिलासफीजैसे मुश्किल विषयों पर विचार करता है)।```
*गावै को साजि करे तनु खेह ॥*
*गावै को जीअ लै फिरि देह ॥*
साजि = पैदा करके, बना के। तनु = शरीर को। खेह = स्वाह, राख। जीअ = जीवात्मा। लै = ले के। देह = दे देता है।
```कोई मनुष्य ऐसे गाता है, ‘अकाल पुरख शरीर को बना के फिर राख कर देता है। कोई ऐसे गाता है, ‘हरि (शरीरों में से) जान निकाल के फिर (दूसरे शरीरों में) डाल देता है’।```