*Guruvaani - 2*

 

*गावै को जापै दिसै दूरि ॥*
*गावै को वेखै हादरा हदूरि ॥*

जापै = प्रतीत होता है, जापता है। हादरा हदूरि = सब जगह हाजिर, हाज़र नाज़र।

```कोई मनुष्य कहता है, ‘अकाल पुरख दूर प्रतीत होता है’; पर कोई कहता है, (नहीं नजदीक है), हर जगह हाजिर है, सभी को देख रहा है’।```

*कथना कथी न आवै तोटि ॥*
*कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥*

कथना = कहना, बयान करना। कथना तोटि = कहने का अंत, गुण वर्णन करने का अंत। कथि = कह के। कथ कथ कथी = कह कह के कही है, बेअंत बार प्रभु के हुकमों का वर्णन किया है। कोटि = करोड़ो जीवों ने।

```करोड़ों जीवों ने बेअंत बार (अकाल पुरख के हुक्म का) वर्णन किया है। पर हुक्म के वर्णन करने में कमीं नहीं आ सकी। (भाव, वर्णन कर कर के हुक्म का अंत नहीं पाया जा सका, हुक्म का सही स्वरूप नहीं ढूंढा जा सका)```

*देदा दे लैदे थकि पाहि ॥*
*जुगा जुगंतरि खाही खाहि ॥*

देदा = देंदा, देने वाला, दातार ईश्वर। दे = (सदा) देता है, दे रहा है। लैदे = लैंदे, लेने वाले जीव। थक पाहि = थक जाते हैं। जुगा जुगंतरि = जुग जुग अंतर, सारे युगों से, सदा से ही। खाही खाहि = खाते ही खाते हैं, इस्तेमाल करते आ रहे हैं।

```दातार अकाल पुरख (सभी जीवों को रिज़क) दे रहा है, पर जीव लै लै के थक जाते हैं। (सभ जीव) सदा से ही (ईश्वर के दिए पदार्थ) खाते चले आ रहे हैं।```

*हुकमी हुकमु चलाए राहु ॥*
*नानक विगसै वेपरवाहु ॥३॥*

हुकमी = हुक्म का मालिक अकाल-पुरख। हुकमी हुकमु = हुक्म वाले ईश्वर का हरि का हुक्म। राहु = रास्ता, संसार की कार। नानक = हे नानक। विगसै = खिल रहा है, प्रसंन्न है। वेपरवाहु = बेफिक्र, चिन्ता से रहित।3।

```हुक्म वाले रब का हुक्म ही (संसार की कार वाला) रास्ता चला रहा है। हे नानक! वह निरंकार सदा बेपरवाह है, प्रसंन्न है। (भाव, हलांकि, ईश्वर हर वक्त संसार के बेअंत जीवों को अटूट पदार्थ व रिज़क दे रहा है, पर इतने बड़े कार्य में उसे कोई घबराहट/परेशानी नहीं हो रही। वह सदा ही प्रसंन्न अवस्था में है। उसे इतने बड़े पसारे में खचित नहीं होना पड़ता। उसकी एक हुक्म रूप सत्ता ही सारे व्यवहार को निबाह रही है।) 3।```

*साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु ॥*
*आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारु ॥*

साचा = अस्तित्व वाला, सदा स्थिर रहने वाला। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। नाइ = न्याय, इंसाफ, संसार के कार्य को चलाने का नियम।

```अकाल पुरख सदा स्थिर रहने वाला ही है, असका नियम भी सदा अटल है। उसकी बोली प्रेम है और वह अकाल-पुरख बेअंत है। हम जीव उससे दातें मांगते हैं और कहते हैं, ‘(हे हरि! हमें दातें) दे’। वह दातार बख्शिशें करता है।```

*फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु ॥*
*मुहौ कि बोलणु बोलीऐ जितु सुणि धरे पिआरु ॥*

फेरि = (अगर सारी दातें वह स्वयं ही कर रहा है) फिर। कि = कौन सी भेंट। अगै = रब के आगे। रखीऐ = रखी जाए, हम रखें। जितु = जिस भेटा के सदके। दिसै = दिख जाए। मुहौ = मुँह से। कि बोलणु = कौन सा वचन? जितु सुणि = जिस द्वारा सुनके। धरे = टिका दे, कर दे। जितु = जिस बोल द्वारा।

```(अगर सारी दातें वह बख्श रहा है तो) हम कौन सी भेटा उस अकाल-पुरख के आगे रखें, जिस सदके हमें उसका दरबार दिख जाए? हम मुँह से कौन से वचन कहें कि (भाव, कैसी अरदास करें कि) जिसे सुन के वह हरि (हमें) प्यार करने लगे।```

*अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥*
*करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरु ॥*
*नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरु ॥४॥*

अंम्रित = कैवल्य, निर्वाण, मोक्ष, पूर्ण खिलाव। अंम्रित वेला = अमृत की बेला, पूर्ण खिड़ाव का समय, वह समय जिस वक्त मानव मन आम तौर पे संसार के झमेलों से मुक्त होता है, सुबह, प्रभात। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नाउ = ईश्वर का नाम। वडिआई विचारु = ईश्वर के बड़प्पन की विचार। करमी = प्रभु की मेहर/ करम से। करम = बख्शिश, मेहर।
जाणीऐ = जान लेते हैं, अनुभव कर लेते हैं। सभु = सब जगह। सचिआरु = अस्तित्व का घर, हस्ती की मालिक।4।

```पूर्ण खिड़ाव का समय हो (भाव, प्रभात का समय हो), नाम (स्मरण करें) तथा उसके बड़प्पन का विचार करें। (इस तरह) प्रभु की मेहर से ‘सिफति’ रूप पटोला मिलता है, उसकी कृपा दृष्टि से ‘झूठ की दीवार’ से मुक्ति मिलती है तथा ईश्वर का दर प्राप्त हो जाता है। हे नानक! इस तरह ये समझ आ जाता है कि वह अस्तित्व का मालिक अकाल पुरख सर्व-व्यापक है।4।```

*थापिआ न जाइ कीता न होइ ॥*
*आपे आपि निरंजनु सोइ ॥*

थापिआ ना जाइ = बनाया नहीं जा सकता, स्थापित नहीं किया जा सकता।
कीता न होइ = (हमारे) बनाए नहीं बनता। न होइ = अस्तित्व में नहीं आता। आपे आपि = स्वयं ही, भाव, ना उसे कोई पैदा करने वाला और ना ही कोई बनाने वाला है। सोइ निरंजनु = अंजन से रहित वो हरि। निरंजन = अंजन से रहित, माया से रहित, जो माया से नहीं बना, जिस में माया का अंश नहीं (निर+अंजन, निर = बिना। अंजन = सुर्मा, कालिख, विकारों की अंश, माया का प्रभाव नहीं है, वह जिस पर माया का प्रभाव नहीं है।)

```वह अकाल पुरख माया के प्रभाव से परे है (क्योंकि) वह पूर्णत: स्वयं ही स्वयं है, ना वह पैदा किया जा सकता है, ना ही हमारे बनाए बनता है।```

*जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु ॥*
*नानक गावीऐ गुणी निधानु ॥*

जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनि = उस मनुष्य ने। मानु = आदर, सत्कार। गुणी निधानु = गुणों के खजाने को। गावीऐ = महिमा करिए।

```जिस मनुष्य ने उस अकाल पुरख का स्मरण किया है, उसने ही आदर सत्कार पा लिया है। हे नानक! (आओ) हम भी उस गुणों के खजाने हरि की महिमा करें।```

*गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ ॥*
*दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ ॥*

मनि = मन में। रखीऐ = टिकाएं। दुखु परहरि = दुख को दूर करके। घरि = हृदय में। लै जाइ = ले के जाता है, कमाई कर लेता है।

```(आओ! अकाल पुरख के गुण) गाएं और सुनें और अपने मन में उसका प्रेम टिकाएं। (जो मनुष्य उसका आहर करता है, प्रयत्न करता है, वह) अपना दुख दूर करके सुख को हृदय में बसा लेता है।```

*गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं गुरमुखि रहिआ समाई ॥*
*गुरु ईसरु गुरु गोरखु बरमा गुरु पारबती माई ॥*

गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करने से, जिस मनुष्य का मुंह गुरु की ओर है, गुरु के द्वारा। नादं = आवाज, शब्द, नाम, जिंदगी की रुमक। वेदं = ज्ञान। रहिआ समाई = समाया हुआ है, सर्व व्यापक है। ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा, पारबती माई = माँ पार्वती।

```(पर उस ईश्वर का) नाम और ज्ञान गुरु के द्वारा (प्राप्त होता है)। गुरु के द्वारा ही (ये प्रतीति आती है कि) वह हरि सर्व-व्यापक है। गुरु ही (हमारे लिए) शिव है, गुरु ही (हमारे लिए) गोरख व ब्रह्मा हैऔर गुरु ही (हमारे लिए) पार्वती माँ है।```

*जे हउ जाणा आखा नाही कहणा कथनु न जाई ॥*
*गुरा इक देहि बुझाई ॥*
*सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥५॥*

हउ = मैं। जाणा = समझ लूँ, अनुभव कर लूँ। आखा नाही = मैं उसका वर्णन नही कर सकता। कहणा.......जाई = कथन कहा नहीं जा सकता। गुरा = हे सत्गुरू! इक बुझाई = एक समझ। इकु दाता = दातें देने वाला एक अकाल पुरख। विसरि न जाई = भूल ना जाए।

```वैसे (इस अकाल पुरख के हुक्म को) अगर मैं समझ (भी) लूँ, (तो भी) उसका वर्णन नहीं कर सकता। (अकाल-पुरख के हुक्म का) कथन नहीं किया जा सकता। (मेरी तो) हे सत्गुरू! (तेरे आगे अरदास है कि) मुझे ये समझ दे कि जो सभी जीवों को दाता देने वाला एक रब हैमैं उसको भुला ना दूँ।5।```

*तीरथि नावा जे तिसु भावा विणु भाणे कि नाइ करी ॥*
*जेती सिरठि उपाई वेखा विणु करमा कि मिलै लई ॥*

तीरथि = तीर्थ पे। नावा = मैं स्नान करूँ। तिसु = उस रब को। भावा = मैं अच्छा लगूँ। विणु भाणे = अगर रब की नजर में स्वीकार ना हुआ, ईश्वर को ठीक लगे बिना। कि नाइ करी = स्नान करके मैं करूँ? जेती = जितनी। सिरठी = सृष्टि, कुनिया। उपाई = पैदा की हुई। वेखा = मैं देखता हूँ। विणु करमा = प्रभु की मेहर के बिना।
कि मिलै = क्या मिलता है? कुछ नहीं मिलता। कि लई = क्या कोई ले सकता है?

```मैं तीर्तों पे जा के तब स्नान करूँ जो ऐसा करके उस प्रमात्मा को खुश कर सकूँ। पर, अगर इस तरह प्रमात्मा खुश नहीं होता तो मैं (तीर्तों पे) स्नान कर के क्या पा लूगाँ। ईश्वर की पैदा की हुई जितनी भी दुनिया मैं देखता हूँ (इसमें) प्रमात्मा की कृपा के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता, कोई कुछ नहीं ले सकता।```

*मति विचि रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी ॥*

मति विचि = (मनुष्य की) बुद्धि में। माणिक = मोती। इक सिख = एक शिक्षा। सुणी = सुनी जाए, सुनें।

```यदि सत्गुरू की एक शिक्षा सुन ली जाए, तो मनुष्य की बुद्धि के अंदर रतन, जवाहर और मोती (उपज पड़ते हैं, अर्थात, प्रमात्मा के गुण पैदा हो जाते हैं)।```

*गुरा इक देहि बुझाई ॥*
*सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥६॥*

```(इसलिए) हे सत्गुरू! (मेरी तेरे आगे ये प्रार्थना है, अरदास है कि) मुझे एक ये समझ दे, जिससे मुझे वह अकाल पुरख ईश्वर ना विसर जाए, जो सभी जीवों को दातें देने वाला है।6।```

*जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ ॥*
*नवा खंडा विचि जाणीऐ नालि चलै सभु कोइ ॥*

जुग चारे = चारों युगों जितनी। आरजा = उम्र। दसूणी = दस गुनी। नवा खंडा विचि = सारी सृष्टि में। जाणीऐ = जानी जाए, प्रगट हो जाए। सभ कोइ = हरेक मनुष्य। नालि चलै = साथ हो कर चले, हिमायती हो, पक्ष करता हो।

```अगर किसी मनुष्य की उम्र चार युगों जितनी हो जाए, (सिर्फ इतनी ही नहीं, बल्कि) उससे भी दस गूनी और (उम्र) हो जाए, अगर वो सारे संसार में प्रगट हो जाए और हरेक मनुष्य पीछे हो ले।```

*चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ ॥*
*जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के ॥*
*कीटा अंदरि कीटु करि दोसी दोसु धरे ॥*

चंगा...कै = खूब मशहूर हो के, खूब नाम कमा के। जसु = शोभा। कीरति = शोभा। जगि = जगत में। लेइ = ले, कमाए। तिसु = अकाल पुरख की। नदरि = कृपा दृष्टि में। न आवई = नहीं आ सकता। वात = खबर, सुर्त। न के = कोई मनुष्य नहीं। कीटु = कीड़ा। करि = कर के, बना के, ठहिर के। दोसु धरे = दोश लगाता है। कीटा अंदरि कीटु = कीड़ों में कीड़ा, मामूली सा कीड़ा।

```अगर कोई खूब नाम कमा के सारे संसार में शोभा प्राप्त कर ले, पर लेकिन अकाल पुरख की मेहर की नजर में नहीं आ सका, तो वह ऐसा है जिसकी कोई बात भी नहीं पूछता। (अर्थात, इतना मान सत्कार होते हुए भी वह बेआसरा ही है)। (बल्कि ऐसा मनुष्य अकाल-पुरख के सामने) एक मामूली सा कीड़ा है। (“खसमै नदरी कीड़ा आवै।” आसा महला१) अकाल पुरख उासे दोषी करार दे के (उस पे नाम को भूलने का) दोष लगाता है।```

*नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे ॥*
*तेहा कोइ न सुझई जि तिसु गुणु कोइ करे ॥७॥*

निरगुणि = गुणहीन मनुष्य में। गुणवंतिया = गुणी मनुष्यों को। करे = पैदा करता है। दे = देता है। तेहा = इस तरह का। न सुझई = नहीं सूझता, नहीं मिलता। जि = जो। तिसु = उस निर्गुण को।

```हे नानक! वह अकाल-पुरख गुणहीन मनुष्य में गुण पैदा कर देता है और गुणी जीवों को भी गुण वही बख्शता है। ऐसा कोई और नहीं दिखता जो निर्गुण जीवों को कोई गुण दे सकता हो। (प्रभु की मेहर की नजर ही उसको ऊँचा कर सकती है, लम्बी उम्र तथा जगत की शोभा सहायता नहीं करती)।7।```

*सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥ सुणिऐ धरति धवल आकास ॥*
*सुणिऐ दीप लोअ पाताल ॥ सुणिऐ पोहि न सकै कालु ॥*
*नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥८॥*

सुणिऐ = सुनने से, यदि नाम में तवज्जो जोड़ी जाए। सिध = वह योगी जिनकी मेहनत सफल हो चुकी है। सुरि = देवते। धवल = धरती का आसरा, बौलद। दीप = धरती के विभाजन के सात द्वीप। लोअ = लोक, भवन। पोहि न सकै = डरा नहीं सकता, अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। विगासु = उमाह, खुशी, खिड़ाउ।

```हे नानक! (अकाल-पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदा ही आनन्द बना रहता है, (क्योंकि) उसकी महिमा सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। ये नाम हृदय में टिकने का ही नतीजा है कि (साधारण मनुष्य भी) सिद्धों,पीरों, देवताओं व नाथों वाली पदवी प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें ये समझ आ जाती है कि धरती-आकाश का आसरा वह प्रभु ही है, जो सारे द्वीपों, लोकों, पातालों में व्यापक है।8।```

*सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ॥ सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ॥*
*सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद ॥ सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद ॥*
*नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥९॥*

ईसरु = शिव। इंदु = इंद्र देवता। मुखि = मुंह से। सालाहण = महिमा, रब की स्तुति। मंदु = बुरा मनुष्य। जोग जुगति = योग की युक्ति, योग के साधन। तनि = शरीर के भीतर के। भेद = बातें।

```हे नानक! (नाम के साथ प्रीत करने वाले) भक्त जनों के हृदय में सदैव प्रसन्नता बनी रहती है; (क्योंकि) ईश्वर की महिमा स्तुति सुन के (मनुष्य) के दुखों और पापों का नाश हो जाता है। अकाल पुरख के नाम के साथ ध्यान जोड़ने के सदका साधारण मनुष्य शिव,ब्रह्मा और इन्द्र की पदवी को प्राप्त कर लेता है, बुरा आदमी भी मुँह से ईश्वर की स्तुति करने लगता है, (साधारण बुद्धि वाले को भी) शरीर के भीतर की गहन सच्चाईयां, (भाव, आँख, कान, नाक, जीभ आदि इन्द्रियों के क्रिया कलापों व विकारों आदि की और की दौड़ भाग) के भेद का पता चल जाता है। प्रभु मेल की युक्ति की समझ पड़ जाती है, शास्त्रों स्मृतियों व वेदों की समझ पड़ जाती है। (भाव, धार्मिक पुस्तकों का असल ऊँचा निशाना तभी समझ आता है जब हम नाम में ध्यान जोड़ते हैं, नहीं तो निरे लफ्जों को ही पढ़ लेते हैं, उस असली जज़बे तक नहीं पहुँचते जिस अहिसास पे पहुँच के उन धार्मिक पुस्तकों का सृजन हुआ होता है)।9।```